पुराणों की गाथा, भाग-2

हिन्दूओं में एक बहुत बड़ा दुष्प्रचार फैलाया गया है कि वेदव्यास कृत पुराण नवीन ग्रन्थ हैं। पुराण नाम से स्पष्ट है कि इसका सम्बन्ध पुराना से है। किसी संस्कृति को खत्म करने के लिए उसके इतिहास को मिटाना पुरानी परम्परा रही है, पुराणों का अपमान करना उसी रीति का अनुकरण मात्र है। पिछले लेख में बताया था कि कैसे पुराण सनातन धर्म के वो खम्भे हैं जिनपर धर्म टिका हुआ है, इसलिए उनके महत्व पर यहाँ लिखना अब आवश्यक नहीं है। अतः पुराणों को नवीन, झूठ का पुलिंदा, मनगढ़ंत कहानियों का पिटारा कहना हिन्दू धर्म की इमारत के खम्भों को तोड़ने के बराबर है। जिन्होंने इस लेख का पहला भाग नहीं पढा है वे इससे पहले का पोस्ट पहले पढ़ लें, इस श्रृंखला के सभी लेखों के लिंक अंत में दिए गये हैं|

       विगत लेख में लिखा था कि ब्रह्मा के स्मरण में वेद से भी पहले पुराण आते हैं इससे स्पष्ट है कि पुराण अनादि हैं। परन्तु कैसे? तो पुराण एक विद्या का नाम है, जैसे कि व्याकरण एक विद्या है। आज संस्कृत व्याकरण का मुख्य ग्रन्थ पाणिनि का अष्टाध्यायी है परन्तु इसका अर्थ यह नहीं कि उसके पहले व्याकरण नहीं था। उसके पहले भी व्याकरण था और उसके अनेक ग्रन्थ थे पर पाणिनि ने व्याकरणशास्त्र को व्यवस्थित रूप दे दिया। जब संस्कृत का मूल स्वरूप कठिन माना जाने लगा तब पाणिनि को इसे व्यवस्थित तरीके से गूंथने की जरूरत महसूस हुई और उन्होंने इसका सूक्ष्म अध्ययन किया, इसके शब्दों को छाना, संकलन, वर्गीकरण किया और सेतुबन्धन किया। 

       बिल्कुल यही बात पुराणों के लिए है। पुराणों में बताया गया है कि पहले पुराण एक ही था और वह सौइयों ग्रन्थों में बिखरा पड़ा था। कलियुग के आरम्भ में मनुष्यों की कम स्मृति, कम विचारशक्ति, कम आध्यात्मबल, कम बुद्धिमत्ता देखकर भगवान वेदव्यास ने जिस प्रकार एक ही वेद को चार सहिंताओं ऋक्-यजु:-साम-अथर्व में विभाजित किया उसी प्रकार अथाह अनन्त अव्यवस्थित पुराणों को वर्गीकृत कर 18 भागों में बांट दिया, जिन्हें आज हम 18 मुख्य पुराणों के रूप में देखते हैं। 

महर्षि वेदव्यास

       तो यहाँ हम ‘वेदव्यास’ के बारे में जान लेते हैं, कि वेदव्यास कोई व्यक्तिविशेष नहीं बल्कि यह एक पदवी या अधिकार का नाम है। हर चार युगों में कलियुग से पहले जो ऋषि मुनि वेद सहिंताओं का विभाजन और पुराण ग्रन्थों को संक्षिप्त, संग्रहित, वर्गीकृत, सरलीकरण करके कलियुग के लोगों की आवश्यकता के अनुसार उन्हें प्रकाशित करते हैं, वही उस समय के ‘व्यास’ कहलाते हैं। इस मन्वन्तर के 28 चतुर्युगों में जो 28 व्यास हुए हैं उन सभी के नाम पुराणों में कई जगह मिलते हैं, किसी समय महर्षि वशिष्ठ और महर्षि पराशर भी व्यास हुए हैं। इस कलियुग के व्यास महर्षि कृष्ण द्वैपायन हैं जिनके द्वारा प्रकाशित वेद और पुराणों को हम सब पढ़ते हैं। इससे पुराण विद्या अनादि सिद्ध हुई।

       कालांतर में कलियुग के दुष्प्रभाव से हो सकता है कि पुराणों के किसी छोटे मोटे भाग में प्रक्षेप आदि हुए हों परन्तु सम्यक अनुशीलन करने वाले वेदनिष्ठ लोग उससे प्रभावित नहीं हो सकते। अतः अनजाने में भी वेद पुराणादि शास्त्रों का अपमान नहीं करना चाहिए, कोई दिक्कत है, कुछ समझ नहीं पा रहे तो मेहनत करके या किसी शास्त्रज्ञ आचार्य से पूछना चाहिए। पुराण के प्रति गलत धारणाओं और पुराण के दुश्मनों से भी दूर रहना चाहिए। 

        भगवान अपने अपराध को सहन कर भी सकते हैं पर शास्त्र के अपराध को कतई सहन नहीं कर सकते। अतः शास्त्रों का आदर ही भगवान का मुख्य आदर है। वेद-पुराणादि शास्त्रों के स्वयं के अनुकूल अंशों को ले लेना, मोहवश अन्य अंशों का प्रतिकूलता के कारण छोड़ देना और अनपेक्षित अंशों को अपनी कल्पना से मानना पतन का कारण और भगवदापराध है।

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