पहले पढ़ें भाग – 1, 2, 3
असम में अवैध घुसपैठ द्वारा निर्मित नागरिकता संकट की पूरी कहानी, भाग-1
असम में अवैध घुसपैठ द्वारा निर्मित नागरिकता संकट की पूरी कहानी, भाग-2
असम में अवैध घुसपैठ द्वारा निर्मित नागरिकता संकट की पूरी कहानी, भाग-3
इंदिरा गांधी और शेख मुजीबुर्रहमान के बीच समझौता
असम में राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण रजिस्टर को लेकर जो विवाद चल रहा है उसका मूल तथ्य यह है कि इस राज्य में बांग्लादेश बनने के बाद तत्कालीन प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गांधी और नवोदित राष्ट्र के पितामह शेख मुजीबुर्रहमान के बीच जो समझौता हुआ था उसके तहत 25 मार्च 1971 तक इस राज्य में रहने वाले लोगों को भारतीय नागरिकता प्रदान करने का वचन था जो भारत को अपना देश स्वीकार करते थे लेकिन यह जानना बहुत जरूरी है कि एेसा क्यों किया गया था।
बांग्लादेश युद्ध के समय भारत में लाखों शरणार्थी उस समय के पूर्वी पाकिस्तान से आये थे। बांग्लादेश बन जाने पर उन्हें यह छूट दी गई थी कि उनमें से जो चाहे भारत और नवोदित देश बांग्लादेश की नागरिकता में से चयन कर सकता है। यह फैसला दूरदृष्टि का था क्योंकि पड़ोसी नए देश के साथ भविष्य में यह प्रगाढ़ मधुर सम्बन्धों की गारंटी देता था पर कालान्तर में यह देश की सुरक्षा के लिए घातक ही सिद्ध हुआ। इससे पूर्व जब 1966 में असम का विभाजन हुआ था तो इसकी भौगोलिक सीमा में रहने वाले सभी असमी नागरिक थे। इससे भी पहले जब 1947 में भारत का विभाजन हुआ था तो जनवरी 1948 तक भारत में रहने वाले सभी नागरिक भारतीय थे। इसके बाद दूसरे विभाजित देश से आने वाले नागरिकों को भारतीय नागरिकता नहीं दी गई थी।
अतः 1971 का इन्दिरा–शेख समझौता इस मामले में मील का पत्थर साबित हुआ जब हमने पूर्वी पाकिस्तान को बांग्लादेश में बदल दिया परन्तु 1971 के बाद असम में सत्तर के दशक के अन्त से अवैध बांग्लादेशियों का मसला सिर उठाने लगा और राज्य में अस्सी के दशक के शुरू में इस मुद्दे पर भारी छात्र आन्दोलन शुरू हो गया उसे देखते हुए 1983 में तत्कालीन प्रधानमन्त्री इन्दिरा गांधी ने असम के लिए विशेष तौर पर ‘अवैध आव्रजक पहचान कानून’ बनाया जिसमें यह प्रावधान था कि किसी भी व्यक्ति को अवैध नागरिक बताने की जिम्मेदारी उस पर एेसा आरोप लगाने वाले व्यक्ति या सरकार अथवा पुलिस की होगी परन्तु इस दौरान 1984 में श्रीमती इन्दिरा गांधी की हत्या होने के बाद जब स्व. राजीव गांधी प्रधानमन्त्री बने तो उन्होंने 1985 में असम के आन्दोलकारी छात्र नेताओं के साथ समझौता किया और नागरिकता का पंजीकरण रजिस्टर बनाने का फैसला किया।
इसके साथ ही उन्होंने आन्दोलनकारी छात्रों की राजनीतिक इकाई ‘अखिल असम गण परिषद’ को राज्य की सत्ता सौंप दी। इसके बाद सत्ता में आने पर असम गण परिषद की सरकारों ने ढीलमढाले तरीके से इस पर काम करना शुरू किया और राज्य में चुनावों के बाद कांगेस की सरकारें बनने लगीं जिसका नेतृत्व सबसे लम्बे समय तक श्री तरुण गोगोई ने किया। राज्य सरकार 1983 के बने अवैध आव्रजक पहचान कानून के तहत ही यह कार्य कर रही थी मगर सर्वोच्च न्यायालय में इस कानून को चुनौती दी गई जिसे 2005 में गैर संवैधानिक करार दे दिया गया।
रोचक बात यह है कि इस कानून को चुनौती देने वाले वर्तमान में भाजपा सरकार के मुख्यमन्त्री सर्वानंद सोनोवाल ही थे। इसके बाद अवैध नागरिकों का मसला फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुंचा और उसने राष्ट्रीय नागरिक पंजीकरण रजिस्टर को बनाने का निर्देश अपनी देखरेख में ही मनमोहन सरकार के सत्ता में रहते हुआ दिया। 2012 से शुरू हुई सर्वोच्च न्यायालय में इस बारे में सुनवाई के दौरान न्यायमूर्तियों ने इस तर्क को खारिज कर दिया था कि 2006 की मतदाता सूची से उन 41 लाख सन्देहास्पद लोगों के नाम हटा दिए जाएं जो धार्मिक पहचान या भाषाई आधार पर अल्पसंख्यक हैं परन्तु उसने अवैध नागरिकों की पहचान करते हुए नागरिकता रजिस्टर तैयार करने के आदेश पारित करके अपनी निगरानी को बनाये रखा।अब जब यह रजिस्टर बनकर तैयार हो गया है तो इसमें 40 लाख के लगभग असम में रह रहे लोगों के नाम नहीं हैं।
गृहमन्त्री श्री राजनाथ सिंह ने इस बारे में लोकसभा में बयान दिया कि यह रजिस्टर अन्तिम दस्तावेज नहीं है, इसमें संशोधन हो सकता है और जो लोग छूट गए हैं वे अपना नाम दर्ज कराने के लिए जरूरी दस्तावेजी औपचारिकताएं पूरी करके आवेदन कर सकते हैं। चूंकि यह समस्या धार्मिक नहीं बल्कि मानवीय ज्यादा है और भारत के संवैधानिक स्वरूप से जुड़ी हुई है। जाहिर है कि इसके राजनीतिक आयाम भी होंगे क्योंकि विभिन्न राजनीतिक दल इसे भुनाने से नहीं चूकेंगे मगर इसे हिन्दू-मुसलमान के रूप में पेश करके हम वास्तविक समस्या से मुंह ही चुराएंगे क्योंकि अवैध नागरिक को भारत का संविधान इसकी आन्तरिक लोकतान्त्रिक प्रणाली में भाग लेने की इजाजत नहीं देता है।
हमें यह ध्यान रखना होगा कि बांग्लादेश से आए अवैध नागरिक को भारत की नागरिकता यहां के विधान के अनुसार ही प्रदान की जा सकती है। हमें राजनीति तो करनी होगी मगर बहुत चौकन्ना होकर और अपने राष्ट्रीय हितों को सबसे ऊपर रखकर क्योंकि पड़ोसी बांग्लादेश हमारा एेसा मित्र राष्ट्र है जिसकी सीमाओं से सटे प. बंगाल में रहने वाले ग्रामीणों के खेत सीमा पार हैं और वे रहते भारत की सीमा में हैं। हमने दो साल पहले जिस तरह सीमा के आर-पार बसे कुछ इलाकों की अदला-बदली की है वह भी ‘इन्दिरा–शेख’ समझौते का ही हिस्सा थी। यह कार्य इस तरह हुआ कि सभी देशवासियों ने इसे दोनों देशों के हितों में ही समझा और खुले दिल से स्वीकार किया।
– मनीष प्रकाश, लेखक राजनीतिक विश्लेषक हैं और राष्ट्रिय महत्व के मुद्दों पर लिखते हैं।