ये उस समय की बात है जब खाना घर में और पाखाना खेत में हुआ करता था, शीला की जवानी और मुन्नी की बदनामी तो दूर की बात दोनों अभी पैदा भी नहीं हुई थीं। ऐसे समय में ही एक दिन दो भाई बब्बन और दद्दन सायकिल पर हरड़ की बोरी लेकर बेचने निकले। पूरा दिन बीत गया एक पसेरी हरड़ भी नहीं बिका।
रात होने आई दोनों भाई सतुआ सान के पेट भरे, अचानक बब्बन के दिमाग में मेंटास बत्ती जली। पेड़ पर चढ़ गया और लगा चिल्लाने ।

बही बयार सभै मर जाइ।
हरड़ खाई अमर होई जाइ।

अगले दिन सारा हरड़ हाथों हाथ बिक गया।
यह माभयम् वाले आर्यावर्त में #डर के अर्थशास्त्र का पहला प्रयोग था।
इसी प्रयोग पर बरसों से विदेशी कंपनियां हमें लूटती रहीं हैं।
(यहाँ हम हरड़ की शान में गुस्ताखी नहीं कर रहे हैं बल्कि अर्थशास्त्र का एक प्रयोग बता रहे हैं। बाकी हरड़ तो यस्य गृहे माता नास्ति तस्य माता हरीतकी।हरड़ माता की जय हो)

डर का अर्थशास्त्र’ केवल आयोडीनयुक्त नमक तक ही सीमित नहीं रहा। लोगों में भय का आतंक फैलाने में “एड्स’ भी एक सफल विदेशी योजना है। अवैध यौन सम्बंधों से रोग फैलता है, इसका प्रचार बड़े जोर-शोर से हो रहा है। वि·श्व बैंक और विदेशी वित्तीय संस्थाएं खुल कर पैसा उपलब्ध करा रही हैं, जिसका बड़ा हिस्सा इन कंडोम निर्मात्री कम्पनियों-जिनमें विदेशी ही अधिक हैं-की झोली में जा रहा है?

भारत सरकार ने एड्स-नियंत्रण-संगठन बनाया जिसने 1992 से काम शुरू किया और पहला सर्वेक्षण 1999 में समाप्त हुआ। दूसरा दौर अब शुरू होने जा रहा है-जिसके लिए वि·श्व बैंक ने 900 करोड़ रुपयों का ऋण दिया है-पूरे सर्वेक्षण का खर्च 1200 करोड़ होगा। नमूने के बतौर हुए एक सर्वेक्षण के अनुसार (अवधि 1986 से 1999 तक) तेरह साल की गणना में 35 लाख लोग एच.आई.वी. ग्रस्त पाए गए तथा इनमें से 9507 एड्स के रोगी पाए गए। 20 जुलाई, 2000 के “न्यूयार्क टाइम्स’ की एक खबर में स्पष्ट कहा गया है, उत्तरी अफ्रीका के देशों के लिए अमरीका की एक्सिम बैंक हर साल सौ करोड़ डालर देने को तैयार है बशर्ते वे देश अमरीका की कम्पनियों द्वारा तैयार की गई एड्स निरोधी दवाइयां ही खरीदें।

पिछले दिनों एड्स को लेकर देश में एक अति महत्वपूर्ण खबर को नजरंदाज कर दिया गया जबकि इस खबर ने एड्स के पूरे प्रचार अभियान पर अनेक सवाल खडे कर दिए हैं जिनका जवाब न तो नेशनल एड्स कंट्रोल आर्गनाइजेशन (नाको) के पास है और ना ही भारत सरकार के पास। नाको ने यह घोषणा की है कि भारत में एचआईवी पाॅजिटिव लोगों की संख्या तेजी से घटी है। इस घोषणा का समर्थन यूएन एड्स और विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी किया है।

AIDS

उल्लेखनीय है कि जून 2006 में नाको ने रिपोर्ट प्रकाशित की थी कि 2005 में भारत मंे एड्स पीडि़त लोगों की संख्या 52 लाख से अधिक है जो कि विश्व में सबसे अधिक है। इस तरह भारत दुनिया की खबरों में एक ऐसे देश के रूप में सुर्खियों में आया जिसमें एड्स महामारी की तरह फैल रही है। आश्चर्य की बात तो यह है कि यूएन एड्स ने भी इस आकडे का समर्थन किया। जबकि उसके पास इसका कोई वैज्ञानिक आधार नहीं था। अन्य अंतर्राष्ट्रीय संगठनों जैसे विश्व स्वास्थ्य संगठन, यूनिसेफ व विश्व बैंक ने भी इस पर अपनी सहमति की मोहर लगाई और दावा किया कि यह आकडा वैज्ञानिक दृष्टि से सही है। यह सब हंगामा उस समय हुआ जब यूएन एड्स के अंतर्राष्ट्रीय निदेशक पीटर पियोट भारत का दौरा कर रहे थे। 3 दिन बाद वे असम गए और वहा गुवहाटी में एक सम्वाददाता सम्मेलन में उन्होंने कहा कि, ‘हमें विश्वास ही नहीं हो रहा कि भारत में पिछले साल के मुकाबले इस वर्ष केवल 35 हजार एड्स के मामले ही बढे हैं जबकि बिहार और उत्तर प्रदेश पूरी तरह एड्स की जकड में हैं।’ इसके दो हफ्ते बाद ही यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट प्रकाशित की और कहा कि भारत में 52 लाख नहीं बल्कि 57 लाख लोग एड्स से ग्रस्त है यानी भारत एड्स के मामले में दक्षिणी अफ्रीका से भी आगे निकल गया। यूएन एड्स ने अपनी रिपोर्ट में यह कहा कि चूंकि नाको ने अपनी रिपोर्ट में बच्चों और बूढों को शामिल नहीं किया था इसलिए यह संख्या कम आंकी गई है।

केरल के कुन्नूर जिले की एक स्वयं सेवी संस्था जैक के अध्यक्ष श्री पुरूषोत्तम मुल्लोली व उनकी सहयोगी अंजू सिंह ने उसी समय नाको को खुली चुनौती दी और उनके आकडे को गलत बताया। उन्होंने यूएन एड्स के इस दावे को भी चुनौती दी जिसमें यूएन एड्स ने कहा था कि भारत में एड्स से 4 लाख लोग मर चुके हैं। श्री मुल्लोली गत अनेक वर्षों से एड्स को लेकर किए जा रहे दुष्प्रचार के विरूद्ध वैज्ञानिक तर्कों के आधार पर एक लम्बी लड़ाई लड रहे हैं। मणिपुर, आसाम, हरियाणा व राजस्थान के मामले में उन्होंने नाको को नाको चने चबवा दिए थे और अपनी रिपोर्ट बदलने पर मजबूर कर दिया था। उस वक्त अमिताभ बच्चन और नफीजा अली जैसे सितारे व हजारों स्वयंसेवी संगठन एड्स के आतंक का झंडा ऊंचा करके चल रहे थे और ये लोग सच्चाई सुनने को तैयार नहीं थे। उस वक्त भी मैंने अपने काॅलम में इस मुद्दे को बहुत जोरदार तरीके से उठाया था और ये बात कही थी कि एड्स या एचआईवी पाॅजिटिव को लेकर जो भूत खड़ा किया जा रहा है वह हवा का गुब्बारा है।

10 वर्ष पूर्व आस्ट्रेलिया के पर्थ शहर में दुनिया भर के 1000 डाक्टर वैज्ञानिक व अनेक नोबल पुरस्कार विजेता एकत्र हुए थे जहां से उन्होंने एड्स को लेकर दुनिया भर में किए जा रहे झूठे प्रचार को चुनौती दी थी। इन्हें पर्थ गु्रप के नाम से जाना जाता है।इनकी चुनौती का जवाब देने की हिम्मत आज तक यूएन एड्स ने नहीं की। इस वर्ष नाको ने जो रिपोर्ट प्रकाशित की है उसमें यह दावा किया है कि भारत में एड्स पीडि़तों की संख्या में 60 फीसदी की कमी आ गई है। अपनी सफाई में नाको ने कहा है कि पिछले वर्ष उसने 700 निगरानी केन्द्रों के आधार पर आकलन किया था जबकि इस वर्ष उसने 1200 निगरानी केन्द्रों की मार्फत जांच की है। इससे बड़ा धोखा और जनता के साथ मजाक दूसरा नहीं हो सकता। नाको कह रही है कि पिछले एक वर्ष में 30 लाख लोग एड्स मुक्त हो गए। यह कैसे संभव है? क्या ये लोग मर गए या उसका इलाज करके उनको ठीक कर दिया गया ? मरे नहीं है, क्योंकि ऐसा कोई आकडा उपलब्ध नहीं हैं और इलाज भी नहीं हुआ क्योंकि अस्पतालों में ऐसे इलाज का कोई रिकार्ड उपलब्ध नहीं है। तो क्या ‘जानलेवा’ मानी जाने वाली एड्स अपने आप देश से भाग गई ?

दरअसल, हुआ यह कि एड्स को लेकर नाको और यूएन एड्स ने 2006 में जो भारत में 57 लाख एड्स पीडि़तों का आकडा प्रकाशित किया था वह एक बहुत बड़ा फरेब था। क्योंकि अगर इतने लोगों को एड्स हुई होती तो अब तब लाखों लोग एड्स से मर चुके होते। लोग मरे नहीं क्योंकि उन्हें एड्स हुई ही नहीं थी और अपनी इसी साजिश को छिपाने के लिए अब नाको ने यह नया आकडा पेश किया है।

जिस देश में 80 फीसदी बीमारियां पीने का स्वच्छ पानी न मिलने के कारण होती हों, उस देश में पानी की समस्या पर ध्यान न देकर एड्स जैसी भ्रामक, आयातित, विदेशी व वैज्ञानिक रूप से आधारहीन बीमारी का ढोंग रचकर जनता के साथ धोखाधडी की जा रही है। जिसके खिलाफ हर समझदार नागरिक को आवाज उठानी चाहिए।

कंडोम छोड़कर प्राकृतिक नियोजन अपनाओ

कंडोम बेशक भोगवादियों,आपके लिए फायदेमंद होता है। ये आपको यौन संचारित रोग और अनचाहे गर्भधारण के खतरों से बचाने में मदद करता है। लेकिन इसका ज्यादा इस्तेमाल आपके स्वास्थ्य के लिए हानिकारक भी हो सकता है।

1) लेटेक्स एलर्जी (Latex allergy)- अधिकांश कंडोम लेटेक्स के बने होते हैं। ये एक तरल पदार्थ है, जो रबर के पेड़ से प्राप्त होता है। दी अमेरिकन अकैडमी ऑफ़ एलर्जी अस्थमा एंड म्यूनोलॉजी के अनुसार, कुछ लोगों में रबर में प्रोटीन होने की वजह से एलर्जी के लक्षण देखे गए हैं। लेटेक्स एलर्जी के लक्षणों में छींक आना, नाक का बहना, पित्ती, खुजली, घरघराहट, सूजन और चक्कर आना शामिल हैं। कई मामलों में लेटेक्स एलर्जी से ऐनफलैक्सिस (anaphylaxis) का खतरा हो सकता है। इसलिए ऐसे लोग सिंथेटिक कंडोम का इस्तेमाल करें।

2) यौन संचारित रोगों का खतरा- बेशक कंडोम से एचआईवी और क्लैमाइडिया, सूजाक और एचपीवी जैसे अन्य रोगों के जोखिम को कम करने में मदद मिलती है। लेकिन इससे यौन संचारित रोगों का खतरा रहता है। क्योंकि ये बाहरी स्किन को सुरक्षित नहीं रख पाता है, जिससे खुजली और इन्फेक्शन का खतरा रहता है। दी अमेरिकन सोशल हेल्थ एसोसिएशन के अनुसार, कंडोम जननांग दाद के खतरे को कम कर सकता है लेकिन ये स्किन के हर हिस्से की सुरक्षा नहीं कर सकता, जिससे यौन संचारित रोगों का खतरा रहता है।

3) गर्भावस्था जोखिम- कंडोम के सही इस्तेमाल से 98 फ़ीसदी सुरक्षा तो मिलती है लेकिन इसके अनुचित उपयोग से 100 में से 15 महिलाओं को गर्भावस्था जोखिम रहता है। इसलिए इसका इस्तेमाल सही तरह से करना बहुत ज़रूरी है। एक्सपायरी कंडोम का इस्तेमाल भूलकर भी न करें।

4) पार्टनर की हेल्थ को खतरा हो सकता है-डलास, टेक्सास दो डॉक्टरों का दावा है कि मेल कंडोम से महिला में कैंसर पैदा हो सकता है। इनके अनुसार, कंडोम पर पाउडर और लुब्रिकेंट का इस्तेमाल किया जाता है। कई अध्ययन के अनुसार पाउडर से ओवेरियन कैंसर का खतरा होता है और फैलोपियन ट्यूब पर फाइब्रोसिस महिला को बांझ बन सकता है। जर्नल ऑफ़ दी अमेरिकन मेडिकल एसोसिएशन के अनुसार, अमेरिकी खाद्य एवं औषधि प्रशासन ने सर्जिकल ग्लव्स पर पाउडर के खतरे को देखते हुए इस पर प्रतिबन्ध लगा दिया था, लेकिन कंडोम के मामले में ये जारी है।

डा.मधुसूदन उपाध्याय
लखनऊ
एड्स दिवस 2017

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