राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के तृतीय सरसंघचालक श्री मधुकर दत्तात्रेय देवरस उपाख्य बालासाहब देवरस ‘सामाजिक समरसता और सेवाकार्यों द्वारा सामाजिक उत्थान’ के पुरोधा के रूप में जाने जाते हैं। बाल्यकाल से जीवन के अंतिम क्षण समाज में फैले कुरीतियों, विषमताओं और अभावों को दूर करने के लिए उन्होंने अनेक योजनाएं बनाईं, उन्हें कार्यान्वित करने के लिए लोकशक्ति का निर्माण किया और समाज का प्रबोधन किया।
ऐसे बालासाहब देवरस का जन्म 11 दिसम्बर 1915 में नागपुर में हुआ था। नागपुर के न्यू इंगलिश स्कूल मे उनकी प्रारम्भिक शिक्षा हुई। संस्कृत और दर्शनशास्त्र विषय लेकर मौरिस कालेज से उन्होंने 1935 मे बी. ए. किया। दो वर्ष बाद उनहोंने विधि की परीक्षा उत्तीर्ण की। कुशाग्र बुद्धि के धनी बालासाहब ने विद्यार्थी जीवन में सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण की।
राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की स्थापना के कुछ समय बाद ही वे डॉ. हेडगेवार के सम्पर्क में आए। उन्हें नागपुर के मोहिते के बाड़े में लगने वाली सायं शाखा के ‘कुश पथक’ में शामिल किया गया, जिसमे विशेष प्रतिभावान छात्रों को ही रखा जाता था। विधि स्नातक करने के बाद उन्होंने नागपुर के ‘अनाथ विद्यार्थी वसतिगृह’ में दो वर्ष तक अध्यापन कार्य भी किया।
इसी अवधि में इन्हें नागपुर के नगर कार्यवाह का दायित्व दिया गया, जिसे उन्होंने बखूबी निर्वहन किया। संघ से उनकी निकटता बढ़ती गई और डॉ. हेडगेवार की प्रेरणा से उन्होंने अपना पूरा जीवन संघ के माध्यम से राष्ट्रकार्य में लगाने का निश्चय किया।
1939 में वे प्रचारक बने, तो उन्हें संघकार्य के विस्तार हेतु बंगाल भेजा गया; पर 1940 में डा. हेडगेवार के देहान्त के बाद उन्हें वापस नागपुर बुला लिया गया। इसके बाद लगभग 30-32 साल तक उनकी गतिविधियों का केन्द्र मुख्यतः नागपुर ही रहा। नागपुर से प्रचारकों की एक बहुत बड़ी फौज तैयार कर पूरे देश में भेजने का श्रेय बालासाहब देवरस को ही जाता है।
यहाँ से जो प्रचारकों की खेप पूरे देश में भेजी गई उसमें स्वयं उनके भाई भाऊराव देवरस भी शामिल थे, जिन्हें उत्तर प्रदेश भेजा गया था। भाऊराव ने लखनऊ में रहकर संघ कार्य को गति प्रदान की और एकात्म मानववाद के प्रणेता पण्डित दीनदयाल उपाध्याय और अटल बिहारी वाजपेयी जैसे लोगों को संघ से जोड़ा।
1948 में जब गांधी हत्या का झूठा आरोप लगाकर संघ पर प्रतिबन्ध लगाया गया, तो उसके विरुद्ध सत्याग्रह के संचालन तथा फिर समाज के अनेक प्रतिष्ठित लोगों से सम्पर्क कर उनके माध्यम से प्रतिबन्ध निरस्त कराने में बालासाहब देवरस की प्रमुख भूमिका रही। संघ के संविधान, गणवेश, शारीरिक एवं बौद्धिक कार्यक्रम और गणगीत आदि निश्चित करने में उनकी मुख्य भूमिका रही।
वे 1965 में सरकार्यवाह बनें तथा श्री गुरुजी के देहान्त के पश्चात् 1973 में सरसंघचालक बने। इसके पश्चात संघ कार्य को गति देने के उद्देश्य से देश भर में प्रवास किया। दो वर्ष के पश्चात ही इन्दिर गांधी की घृणित राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं में 4 जुलाई 1975 को संघ पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया।
उनके नेतृत्व में संघ ने इस प्रतिबन्ध का बड़े धैर्य से सामना किया और उन्हीं की प्रेरणा से कांग्रेस व साम्यवादियों को छोड़कर अन्य सभी सामाजिक, धार्मिक एवं राजनीतिक संगठनों ने मिलकर आपातकाल के विरूद्ध देशव्यापी जबरदस्त सत्याग्रह किया। परिणामस्वरूप संघ से प्रतिबन्ध हटाया गया और 1977 के चुनाव में कांग्रेस की जबरदस्त पराजय हुई।
सन 1983 में मीनाक्षीपुरम (तमिलनाडु) के हिन्दुओं का इस्लाम पंथ में सामूहिक मतांतरण हुआ। इस घटना ने पूरे देश के हिन्दुओं को झकझोर कर रख दिया। इस चुनौती का सामना करने के लिए बालासाहब देवरस के मार्गदर्शन में देशभर में एकात्मता यात्रा निकाली गई। इस यात्रा के माध्यम से देश में अभूतपूर्व जनजागरण हुआ।
सरसंघचालक रहते हुए बालासाहब ने संघकार्य में अनेक नए आयाम जोड़े। इनमें सबसे महत्वपूर्ण है निर्धन बस्तियों में चलने वाले सेवा कार्य। इससे वहां चल रही धर्मान्तरण की प्रक्रिया पर रोक लगी। स्वयंसेवकों द्वारा प्रान्तीय स्तर पर अनेक संगठनों की स्थापना की गई थी। बालासाहब ने वरिष्ठ प्रचारक देकर उन सबको अखिल भारतीय रूप दे दिया।
बालासाहब देवरस के ही कार्यकाल में संघ का विस्तार देशभर में तहसील स्तर तक पहुंचा। देशभर में एक ओर जहां शाखाओं का व्यापक स्तर पर विस्तार हुआ वहीं उनके 21 वर्षों के कालखण्ड में अपने सहयोगी संगठनों की शक्ति में भी पर्याप्त वृद्धि हुई।
बालासाहब देवरस ने कारंजा (बालाघाट) की अपनी पैतृक संपत्ति को बेचकर उससे प्राप्त धनराशि से नागपुर-वर्धा मार्ग पर स्थित खापरी में 20 एकड़ भूमि खरीदी थी, जिसे 1970 में उन्होंने भारतीय उत्कर्ष मंडल को दान कर दिया। इस भूमि पर ग्रामीण बालक-बालिकाओं के लिए भारतीय उत्कर्ष मंदिर (विद्यालय), गोशाला और स्वामी विवेकानन्द मेडिकल मिशन नामक अस्पताल ग्रामवासियों के सेवार्थ कार्यरत है।
मधुमेह रोग के बावजूद 1994 तक सरसंघचालक के रूप में उन्होंने दायित्व निभाया। जब उनका शरीर प्रवास योग्य नहीं रहा, तब उन्होंने प्रमुख कार्यकर्ताओं से परामर्श कर यह दायित्व श्री रज्जू भैया को सौंप कर पद त्याग का अनुपम उदाहरण प्रस्तुत किया। इतना ही नहीं सन 1996 में अपना शरीर छोड़ने के पूर्व ही उन्होंने निर्देश दिया कि उनका दाह संस्कार सामान्य व्यक्ति की भांति सार्वजनिक स्थल पर किया जाए।
इसके पीछे उद्देश्य था कि उनकी स्मृति में किसी स्मारक का निर्माण न हो। अपने जीवित रहते हुए ही उन्होंने जो पत्र लिखा था उसमें दो बातें प्रमुख थी। एक कि उनके नाम पर कहीं भी स्मारक का निर्माण न कराया जाए और दूसरा यह कि आद्य सरसंघचालक डॉ. हेडगेवार और द्वितीय सरसंघचालक गुरूजी के अलावा अन्य किसी सरसंघचालक का चित्र नहीं लगाया जाएगा। 17 जून 1996 में बालासाहब इस संसार से विदा हो गए। उन्हें कोटिशः नमन एवं विनम्र श्रद्धांजलि।
– विशाल अग्रवाल (लेखक भारतीय इतिहास और संस्कृति के गहन जानकार, शिक्षाविद, और राष्ट्रीय हितों के लिए आवाज़ उठाते हैं। भारतीय महापुरुषों पर लेखक की राष्ट्र आराधक श्रृंखला पठनीय है।)
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