लेखक:- आचार्य वासुदेव मिश्र
वेद विज्ञाता
यत्रौषधीः समम्मत राजानः समिताविव ।
विप्रः स उच्यते भिषग् रक्षोहामीवचातनः ॥
ऋग्वेदः १०-९७-६ ॥
राजा जिसप्रकार सङ्ग्राममें अपने सैनिकोंके साथ विराजते हैं, उसीप्रकार शल्यादि अष्टतन्त्रज्ञ नाडीविज्ञान विशारद जिस विद्वानपुरुष नाना प्रकारके औषधीगणेंको एकत्रकर उनके साथ प्रतिष्ठित होता है, वह भिषक् (वैद्य) कहलाता है। जैसे राजा दुष्टपुरुषोंके अत्याचारसे प्रजाका रक्षाकरता है, भिषक् रोगजनित पीडाका उपशमकर जनताका कल्याण करता है (मृत्युके उपर भिषक् का नियन्त्रण नहीं है, जैसे जय-पराजय राजाके अधीन नहीं है। वह केवल भगवानके हाथमें है) ।
आयुर्वेद विषयः (Subject)
धर्म-अर्थ-काम त्रि पुरुषार्थ का साधन आयु है। परन्तु यह आयु क्या है ? सदा गतिशील जीवितव्याप्य कालको आयु कहते हैं (इ॒ण् गतौ । शरीर, इन्द्रिय, मन तथा आत्मा – इन चारोंका सहावस्थानका नाम आयु है । इन्द्रियसंयुक्त मन, आत्मा और शरीर – यह त्रिदण्डवत् (त्रिपदी – like a tripod) है । एक नहीँ रहनेसे अन्य भी नहीं रह सकते। पञ्चभूत, आत्मा, मन, काल, दिक्- यह नौ द्रव्य हैं । इन्द्रियसंयुक्त द्रव्य चेतन है। निरिन्द्रिय द्रव्य अचेतन है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध विषय है। गुरु, लघु, शीत, उष्म, स्निग्ध, रुक्ष, मन्द, तीक्ष्ण, स्थिर, सर, मृदु, कठिन, विशद, पिच्छिल, घन, मसृण, स्थूल, सूक्ष्म, सान्द्र, द्रव – यह विंशति गुण हैं। यत्नसाध्य क्रिया का नाम कर्म अथवा चेष्टित है। यह संयोग विभाग का कारण है ।
सत्त्व-रज-तम तीन गुणों के मात्रान्तर से भूतसृष्टि होता है, यह वैज्ञानिक सिद्धान्त है जिसे आपत्ति है, हमसे शास्त्रार्थ कर लें) । सत्त्वबहुल आकाश है । रजोबहुल वायु है । सत्त्वरजोबहुल अग्नि है। सत्त्वतम बहुला आपः है। तमोबहुला पृथिवी है। पञ्चभूतात्मक शरीरमें तत्तत्लक्षण गन्ध, क्लेद, पाक, व्युह तथा अवकाश है । परन्तु केवलमात्र गन्ध ही समवायसम्बन्ध से शरीरका उपादानकारण है। अन्य चार भूत निमित्तकारण हैं। इनके भेदसे शरीरके ८४ लक्ष भेद हैं। इनमें ९ लक्ष प्रकारके जलज हैं, २० लक्ष प्रकारके स्थावर हैं । ११ लक्ष प्रकारके कृमी हैं । १० लक्ष प्रकारके पक्षी हैं । ३० लक्ष प्रकारके पशु हैं। ४ लक्ष प्रकारके मनुष्य हैं ।
पञ्चभूतों में से भोगाधिष्ठान शरीर पार्थिवभूत प्रधान है, जिसका बिष्टम्भकत्व (व्युह विरोधिता) एक लक्षण है। आकाश निष्क्रिय है। अन्य भुतों में से जल का विकार को कफ, अग्नि के विकार को पित्त तथा वायु के विकार को वात कहते हैं | विषयों (शब्द-स्पर्श-रूप-रस-गन्ध) का तत्तत् इन्द्रियों (कर्ण-चर्म-चक्षु-रसना नासा) के साथ अयोग, अतियोग तथा मिथ्यायोग से वह असात्म्य हो कर विकार सृष्टि कर दोष बनते हैं । असात्म्यइन्द्रियार्थसन्निकर्ष (excess, too little or unnatural exposure of senses to their objects). परिणाम (काल- time evolution like seasonal effects or age factor) तथा प्रज्ञापराध (doing something while knowing it is wrong) – यह तीन समस्त रोगों का कारण हैं (causes of all diseases) । शरीर एवं मन को आश्रय कर रोग एवं आरोग्य प्रवर्त्तित होते हैं। आरोग्य सुख संज्ञक है। विकार दुःख का कारण है। शारीरिक रोग को व्याधि तथा मानसिक रोग को आधि कहते हैं। वात-पित्त कफ के असात्म्य से व्याधि तथा रज-तम गुण के असात्म्य से आधि सृष्टि होता है। सत्त्व के ८ (अथवा ७) भेद, रज के ७ भेद तथा तम के ३ भेद होते हैं । राग, द्वेष, आदि का प्रभाव शरीर तथा मन पर पड़ता है। उससे औत्सुक्य, मोह तथा अरति (व्याकुलता) उत्पन्न हो कर विकार उत्पन्न करते हैं। वात-पित्त-कफ का समयोग आरोग्यका कारण है, जिसका पद्धति विवेच्य है ।
आरोग्य सुख संज्ञक है। विकार दुःख का कारण है। शारीरिक रोग को व्याधि तथा मानसिक रोग को आधि कहते हैं। वात-पित्त कफ के असात्म्य से व्याधि तथा रज-तम गुण के असात्म्य से आधि सृष्टि होता है।
वात-पित्त-कफ के असात्म्य से अनेकविध रोगों की उत्पत्ति होती है। उनमें वात के ८०, पित्त के ४० तथा कफ के २० रोग मूख्य है।
आयुर्वेद प्रयोजनम् (Necessity)
जीवन (शरीरके साथ प्राणवायु का संयोग), मृत्यु (शरीरके साथ प्राणवायु का संयोगनाश), स्वप्न, जागरण, रोग, भेषजप्रयोगसे निरामय, सजातीयका अनुविधान, अनुकूलवस्तु का स्वीकरण तथा प्रतिकूलवस्तु से विरति – यह शरीरका कतिपय धर्म है। अन्य विषयों का प्राप्ति अथवा परिहार से शरीर में सुख अथवा दुःख जात होते हैं। सर्वदा सब अवस्थामें समुदय द्रव्य-गुण-कर्म का साम्य (साधर्म्यों का सहावस्थान) ही वृद्धि का कारण है। इनका असमान भाव (वैधर्म्यों का सहावस्थान) ही ह्रास का कारण है। शरीरके समस्त धातु समयोगवाही हैं। जब वह धातु वैषम्यप्राप्त होते हैं, तब शरीर क्लेश अथवा विनाशप्राप्त होता है। उस दुःखसंयोग को व्याधि कहते हैं। यह आगन्तु (from external sources), शारीर (genetic), मानसिक (mental) अथवा स्वाभाविक (by natural processes like aging) हो सकते हैं। समस्त प्रकार के शरीरों में विकृत धातुओं को साम्यावस्थामें लाना आयुर्वेद का प्रयोजन है । वृक्षायुर्वेद (दोहद), हस्त्यायुर्वेद, अश्वायुर्वेद, वृषायु्र्वेद आदि आयुर्वेद के अवान्तर शाखाएँ हैँ ।
सम्बन्धः (Relation)
व्याधि का चिकित्सा युक्तियुक्त मणि-मन्त्र-औषधि से किया जाता है। आधि का चिकित्सा ज्ञान, विज्ञान, धैर्य, स्मृति और समाधि द्वारा किया जाता है । रुक्ष, लघु, शीत, सूक्ष्म, चल, विशद, खर – यह वात के गुण हैं। इनके विपरीत गुणों के प्रयोग से वातविकार प्रशमित होता है । सस्नेह (अल्प स्नेहयुक्त), उष्म, तीक्ष्ण, द्रव, अम्ल, सर, कटु यह पित्त के गुण हैं। इनके विपरीत गुणों के प्रयोग से पित्तविकार प्रशमित होता है। गुरु, शीत, मृदु, स्निग्ध, मधुर, पिच्छिल, स्थिर – यह कफ के गुण है। इनके विपरीत गुणों के प्रयोग से कफविकार प्रशमित होता है। देश, काल, मात्रा विचार कर वातादि के विपरीत गुणशाली औषध प्रयोग करनेसे वातादिजनित रोगसकल यदि साध्य हो, तो आरोग्य होता है। परन्तु रोग यदि असाध्य हो, तो आरोग्य के लिए गुण और कर्मका विशेषज्ञान – यथा निदान, पूर्वरूप, रूप, उपशय ( हेतु- कारण निदान, रोग के विपरीत अर्थ- प्रयोजन को सिद्ध करनेवाले औषध, अन्न तथा विहारके सुखावह प्रयोग तथा सम्प्राप्ति (विकृत वातादि का अन्य स्थान में उपसर्पण- lateral effects) आवश्यक है। आयुर्वेद में उसी विशेष गुण और कर्म का वर्णन है ।
वातविकारों में मधुर, अम्ल, उष्ण, लवणरस युक्त भोजन, स्नेहन, स्वेदन, आस्थापन, अनुवासन, नस्य, अभ्यङ्ग, उत्सादन, परिषेक आदि कर्म करना चाहिए । पित्तविकारों में कषाय, तिक्त, मधुररस युक्त भोजन, स्रंसन (विरेचन), शोषण, प्रदेह, परिषेक, अभ्यङ्ग, अवगाहन आदि कर्म करना चाहिए। कफविकारोंमें मात्रा तथा काल का विवेचन करतेहुए कषाय, कटु, तिक्तरस तथा रूक्ष तथा उष्ण भोजन, स्नेहन, स्वेदन, वमन, शिरोविरेचन, व्यायाम आदि कर्म करना चाहिए । आयुर्वेद
मूल आयुर्वेद १,००० अध्याय का एक ही शास्त्र था, जिसे ६ स्थान तथा ८ अङ्गों में विभाजित कियागया है, जो समस्त भिषक् को सिखाया जाता है । यह हैं –
स्थान
सूत्रस्थान, निदानस्थान, विमानस्थान, शारीरस्थान, इन्द्रियस्थान, चिकित्सास्थान (अग्निवेश) । अथवा – सूत्रस्थान, निदानस्थान, शारीरस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान, उत्तरस्थान (धन्वन्तरी) । अथवा – सूत्रस्थान, विमानस्थान, शारीरस्थान, इन्द्रियस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान (कश्यप) । अथवा – अन्नपानम्, अरिष्टस्थान, चिकित्सास्थान, कल्पस्थान, सूत्रस्थान, शारीरस्थान, (अत्रि) ।
अङ्ग (Branches of Ayurveda )
- शल्य किसी वाह्यपदार्थ अथवा शरीरस्थ दुषित पदार्थों का निष्कासन केलिए यन्त्र, शस्त्र, क्षार, अग्नि के प्रयोग द्वारा एवं व्रण के निश्चय के लिए उपचार | शरीरस्थ १०७ मर्मस्थान का चिकित्सा भी इसीमें आती है – surgery etc. as taught to Sushruta by Dhanwantari) ।
- शालाक्य (ग्रीवामूल से उपर के रोगों यथा कान, नाक, गला, आँख, मुख आदि का उपचार ENT, Eye and dentistry)।
- कायचिकित्सा – समस्त शरीरको प्रभावित करनेवाले रोग यथा ज्वर, रक्तपित्त, शोष, यक्ष्मा, उन्माद, अपस्मार, कुष्ठ, प्रमेह तथा मधुमेह, अतिसारका उपचार General Medicine for symptoms arising out of malfunction of the body, like fever, impurities of blood, dehydration, TB, Epilepsy, Leprosy, diabetes, Diarrhea, etc, as taught to Charaka by Agnivesha) ।
- ग्रहावेश चिकित्सा (भूतविद्या) – जो कुछ विकारों के मूलकारणों का चाक्षुषप्रत्यय नहीं होता (लक्ष्यन्ते केवलं शास्त्रचक्षुषा- infections arising out of bacteria and virus), तथा जो रोग अमानवीय कारणों से होता है (उन्माद, अपस्मार आदि) उसे ग्रहावेश कहा जाता है। वालकों का निरन्तर क्रन्दन करना ग्रहावेश का पूर्वरूप है।
- कौमारभृत्य (Pediatrics as espoused elaborately by Ravana) |
- अगदतन्त्र स्थावर जङ्गमादि नानाविध विषों के संयोग से उत्पन्न हुए विकारों के शान्ति के लिए कर्म (Treatment for poisons) |
- रसायनतन्त्र अवस्था को स्थित रखने के लिए, आयु, मेधा तथा बल वृद्धि केलिए, तथा रोगप्रतिषेधकशक्ति वृद्धि के लिए उपचार (Rejuvenation and Immunization) |
- वाजीकरणतन्त्र स्वभावसे ही अथवा विशेषकारण से अल्पवीर्यवाले पुरुषोंमें वीर्यबृद्धि के लिए, वात आदिके द्वारा दुषितशुक्रका शोधन के लिए, वृद्धावस्था के कारण शुष्कवीर्य पुरुषोंमें वीर्यबृद्धि के लिए तथा स्त्रीप्रसङ्गमें प्रहर्षउत्पादन के लिए उपचार (Sexual arousal and stimulation) ।
अधिकारी (Eligibility/Qualities to get the knowledge) –
जो व्यक्ति कुलीन, धार्मिक, सौम्यदर्शन, उत्तमसहायकों से युक्त, शान्त, अलुब्ध, अशठ, श्रद्धालु, कृतज्ञ, क्रोध-कठोरता-मत्सरता-माया आलस्य-रहित, जितेन्द्रिय, क्षमाशील, पवित्रस्वभाव, शीलयुक्त, मेधावी, उद्यमी, हितेच्छु, निपुण, चतुरवक्ता, व्यसनरहित, नाडीज्ञानपरायण, निदानतत्त्वज्ञ, स्थावर जङ्गम औषध तत्त्वाधिगत, सदा अगद रखनेवाला हो, वही इस शास्त्र के योग्य अधिकारी है।
वैद्य की वैद्यता (Essence of a Doctor) ।
व्याधिस्तत्त्वपरिज्ञानं वेदनायाश्च निग्रहः ।
एतद्वैद्यस्य वैद्यत्त्वं न वैद्यः प्रभुरायुषः ॥
व्याधिके मूलकारणका ज्ञान तथा कष्टनिवृत्ति यही वैद्य का वैद्यत्व (कार्य) है। जीवन-मरण (आयु) वैद्य के अधीन नहीं है। रोगतत्त्व, औषधतत्त्व, तथा रोगों के साध्यासाध्यलक्षणतत्त्व जो अच्छीप्रकारसे समझता है, जो बहुदर्शी तथा शास्त्रज्ञ वैद्य है, वही चिकित्साकार्यमें सफल होता है। मानवशरीरमें रहनेवाली धातुएँ जिन उपायों से समभावमें रह सके, ऐसा उपाय करना वैद्यका कर्तव्य है। जो नाडी, जिह्वा, नेत्र, शब्द, स्पर्श, मूत्र, मल, आकृति (चेष्टा) के परिक्षा किए बिना ही चिकित्सा आरम्भ कर देता है, वह वैद्य नहीं- चोर है (यः कर्मकुरुते वैद्यः स वैद्यऽन्ये तु तस्कराः)। आयुर्वेद
नाड़ी परीक्षा
वातं पित्तं कर्फ द्वन्दं सन्निपातं रसं त्वसृक् ।
साध्यासाध्यविवेकश्च सर्वं नाडी प्रकाशयेत् ॥
वात-पित्त-कफ, इनका द्वन्द (वात-पित्त, वात-कफ, पित्त-कफ) तथा सन्निपात (समस्त दोष), एवं रोगों का साध्यासाध्यविवेक (कौन रोग साध्य है, कौन नहीं), यह सब नाडी प्रकाश करती है। नाडीपरिक्षा केवल स्पन्दनसंख्या (pulse rate) गणन नहीं है। नाडीपरिक्षाके अभ्यास किए बिना केवल पुस्तक पढ- सुन कर अथवा संख्यागणन कर नाडीज्ञान प्राप्तकरना असम्भव है। उसकेलिए अभ्यास द्वारा स्पर्शज्ञान का विकाश करना चाहिए। प्रथम सुस्थपुरुषका नाडीपरिक्षा अभ्यास करने के पश्चात् रोगी का नाडीपरिक्षा करना चाहिए। सुलभ ग्रन्थों में से रावणकृत नाडीपरिक्षा इस विषय पर एक श्रेष्ठ ग्रन्थ है ।
उर्ध्वं प्राणमुन्नयति अपानं प्रत्यगस्यति ।
मध्ये वामनमासीनं सर्वेदेवा उपासते ॥ ….
तत्र नाड्यः समुत्पन्नाः सहस्राणि द्विसप्तति ।…
सततं प्राणवाहिन्यः सोमसूर्याग्निदेवताः ।
इडापिङ्गलासुषुम्नास्तिस्रो नाड्यः प्रकीर्तिताः ॥
शरीर के उर्द्ध्वभागमें रहनेवाला प्राणवायु उपरको जाता है। अपानवायु नीचे की दिशा में गति कराता है। परन्तु मध्यमें स्थित व्यानवायु ही इनको समतुलित करता है। तभी प्राणी जीवित रहते हैं। व्यानवायु के आधारभूता नाडियों के संख्या ७२,००० है। इनमें प्रतिनाडी शाखाओँ का सङ्कलन कर देने से इनके संख्या ७२,७२,१०,१०१ हो जाती है। इनमें १० अथवा १४ मूख्य मानीजाती है। उनमेंसे भी तीन – इडा-पिङ्गला-सुषुम्ना तथा इनमेंभी सुषुम्ना प्रधान मानीजाती है । यह नाडियाँ छिद्रयुक्त होते हैं। इनसे भुक्तपदार्थों का रस आकुञ्चन-प्रसारण द्वारा समग्र शरीरमें सञ्चरित होकर देहका पोषण करते हैं। जब किसीप्रकारके मिथ्या आहार-विहार से शरीरस्थ रस-रक्तादिका समूह ह्रास होकर विकारप्राप्त होते हैं, तो नाडियोँके गतिमें परिवर्तन होती है। जैसे सुदक्षवादक रागरागिणियोंको सुनकर वीणाके कौनसे तन्त्रियों द्वारा बजाया जारहा है यह जान जाता है, उसीप्रकार सुदक्षवैद्य नाडियोंके गतिसे उनके अवस्थाको जानकर रोगका निदान करता है। नाडीशास्त्र बहुत सूक्ष्म है। नीचे कतिपय उदाहरण दिए जा रहे हैं।
आदौ वातवहा नाडी मध्ये वहति पित्तला।
अन्ते श्लेष्मविकारेण नाडीकेति त्रिधा मता ॥
वातेऽधिके भवेन्नाडी प्रव्यता तर्जनीतले ।
पित्ते व्यक्ताऽथ मध्यायां तृतीयाङ्गुलिगा कफे ॥
तर्जनीमध्यमामध्ये वातपित्ताधिके स्फुटा।
तर्जन्यनामिकामध्ये व्यक्ता वातकफे भवेत् ॥
मध्यमानामिकामध्ये स्फुटा पित्त कफे भवेत् ।
अङ्गुलित्रितयेऽपि स्यात् प्रव्यक्ता सन्निपाततः ॥….
भूलताभुजगप्राया स्वच्छा स्वास्थ्यमयी शिरा।
सुखितस्य स्थिरा ज्ञेया तथा बलवती मता ॥
प्रातः स्निग्धमयी नाडी मध्याह्नेऽप्युष्णतान्विता ।
सायाह्ने धावमाना च चिराद्रोगविवर्जिता ॥
स्थिरा श्लेष्मवती ज्ञेया मिश्रिते मिश्रिता भवेत् ॥
सर्पजलौकादिगतिं वदन्ति विबुधाः प्रभञ्जने नाडीम् ।
वातावक्रगता नाडी चपला पित्तवाहिनी।
पित्तेन काकलावकभेकादिगतिं विदुः सुधियः ॥
राजहंसमयुराणां पारावतकपोतयोः ।
कुक्कुटस्य गतिं धत्ते धमनी कफसंसृता ॥… आदि ॥
दुःख का विषय है कि आयुर्वेद की इतनी उन्नत रोगनिर्णय पद्धति को हमारे आयुर्वेद पाठ्यक्रम (syllabus) से बाहर रखा गया है तथा stethoscope पकड़ा दिया गया है। ताकि विभिन्न परिक्षा (mechanical diagnostic tools) के नाम से रोगी का प्राण के साथ-साथ धन का भी हरण किया जा सके।
रसविज्ञान ।
रसदोषविभागज्ञः प्रकोपोपशमं प्रति ।
भिषभिषक्त्वं लभते विपर्ययमथान्यथा ॥
रस और दोषके विभागों को जाननेवाला वैद्य रोगों के प्रकोप तथा उपशम के प्रति भिषक्त्व (वैद्यत्व) को प्राप्त करता है ।
पृथिवी आदि पञ्चभूतों में चव्य (चबा कर खाने वाला), चोष्य (चुष कर खाने वाला), लेह्य (चाट कर खाने वाला), पेय (पीने वाला), भक्ष (सब मिलकर खाना), भोज्य (अलग अलग-course by course- खाने वाला) भेद से तथा मधुर-कषाय-तिक्त-अम्ल-क्षार-कटु भेद से छह प्रकार वाला, शीत-उष्ण भेद से दो प्रकार के वीर्य वाला अथवा शीत उष्म-स्निग्ध-रुक्ष-विशद – पिच्छिल-मृदु-तीक्ष्ण भेद से आठ प्रकार के वीर्य वाला, अथवा पूर्वोक्त विंशति गुणों वाला, आहार का भोजन करने पर, , इससे सम्यक् परिपाक होने से जो तेजोभूत परम सूक्ष्म सार निर्मल श्रेष्ठ अंश रहता है, उसे रस कहते हैं। सम्पूर्ण शरीरावयव में दोष-धातु मल-आशय में प्रसारित यह रस, द्रव के समान अनुशरणशील, स्नेहन, जीवनदायी, तर्पण, धारण, अवष्टम्भन आदि भेदों से सौम्य माना जाता है। आयुर्वेद
पञ्चभूतों में से भोगाधिष्ठान शरीर पाथिवभूत प्रधान है। आकाश निष्क्रिय है। अतः अन्य तीन भुत परष्पर विकारसृष्टि करते हैं। दो भुतोंके मिलनसे गति उत्पन्न हो कर जो विकार होता है, उसे रस कहते हैं (रसँ आस्वादनस्य ) | इनमें जल, अग्नि एवं वायु पृथ्वीके साथ मिलकर तीन प्रकारके रस सृष्टि करते हैं। अग्नि एवं वायु, जलके साथ मिलकर दो प्रकारके रस सृष्टि करते हैं। अग्नि वायु के साथ मिलकर एक प्रकारके रस सृष्टि करता है। सब मिलाकर रस ६ प्रकारके हैँ ।
इनमें पृथ्वी तथा जलके सम्मिश्रणमें मधुररस का सृष्टि होता है। पृथ्वी तथा अग्निके सम्मिश्रणमें अम्लरस का सृष्टि होता है। पृथ्वी तथा वायुके सम्मिश्रण में कषायरस का सृष्टि होता है। अग्नि तथा जलके सम्मिश्रणमें लवणरस का सृष्टि होता है। अग्नि तथा वायुके सम्मिश्रणमें कटुरस का सृष्टि होता है। वायु तथा जलके सम्मिश्रणमें तिक्तरस का सृष्टि होता है। परन्तु रस द्रव्यश्रित होने से, द्रव्यमात्र ही पञ्चभौतिक होने से, तथा तिक्तरसमें जल का न्यूनता तथा अवकाश (आकाश) का आधिक्य होने से वायु तथा आकाशके सम्मिश्रणमें तिक्तरस का सृष्टि कहा जाता है। आयुर्वेद
प्रश्न हो सकता है कि आयुर्वेद में प्रोटिन, विटामिन आदि का उल्लेख क्यों नहीं है ?
उत्तर है कि यह अवैज्ञानिक वर्गीकरण है। प्रोटिन, विटामिन आदि हमारे खाद्यमें स्वतन्त्ररूप से नहीं पाए जाते। यह कार्बन, अक्सिजेन, हाइड्रोजेन, नाइट्रोजेन, फोसफोरस आदि अणुओंके विशेष मिश्रण है। यह भी एक तत्त्व नहीं है । २० एमिनो एसिड् (amino acid) के सम्मिश्रण से प्रोटिन बनता है। प्रत्येक एमिनो एसिड् में एक कार्बन, एक एमाइन ग्रुप (NH2), एक कार्बोक्सिल (COOH), एक हाइड्रोजेन अणु, २० एमिनो एसिडों का एक एक साइड चेन (R group) के साथ जुड़े होते हैं, जो एक आल्फा कार्बन से (Alpha Carbon is the carbon adjacent to the carbonyl. The functional group C =O is called a “carbonyl”) पोलिपेप्टाइड बाँण्डू से जुड़ा रहता है। एमिनो एसिड् घनता प्राप्त होते हुए एक एक कार्बोक्सिल ग्रुप से एक OH छोडता है तथा अन्य ग्रुप से एक हाइड्रोजेन छोडता है। दोनों मिलकर पानी बन जाते हैं। आयुर्वेद
उसी प्रकार विटामिन भी १३ प्रकार के हैं, जो अलग अलग नामों से जाने जाते हैं और जिनका रासायनिक सङ्गठन भी भिन्न है। उदाहरण के लिए, Vitamin A, retinol है, vitamin C ascorbic acid है, vitamin D calciferol है, आदि। प्रोटिन के अणु पिरियडिक टेविल में पाये जाते हैं। परन्तु विटामिन स्थूलभूतों (molecules) से बनते हैं। हमारे खाद्य में प्रोटिन, विटामिन आदि अलग से अपने अस्तित्व बनाये नहीं रखते, परन्तु सम्मिलित अवस्था में रहते हैं । जैसे पानी पीते हुए हम नहीँ कहते है कि हम अक्सिजेन, हाइड्रोजेन पी रहे हैं (कारण उनका सम्मिलित रूप होते हुए भी पानी का गुण और कार्य अक्सिजेन, हाइड्रोजेन के गुण और कार्य से सर्वथा भिन्न है), उसी प्रकार हम खाद्य खाते हुए नहीं कह सकते कि हम प्रोटिन, विटामिन आदि खा रहे हैं ।
परन्तु रस के विषय में ऐसी विप्रतिपत्ति नहीं है। आयुर्वेद के रस का आधार विज्ञान सम्मत है। उदाहरण के लिए मधुर रस को लिजिए। ग्लुकोज का रासायनिक सङ्गठन C6H1206 है, जिसे हम 6(C+H2O) लिख सकते हैं । यत् काठिन्यं तत् पृथिवी – यह सिद्धान्त से कार्बन पृथ्वीतत्त्व है, जो सारे अर्गानिक तत्त्वों का मूल है। उससे जल मिलकर मधुर रस बनता है यह प्रमाणित होता है। अन्य रसों के विषय में भी उसीप्रकार समझना चाहिए। अब हमारे शरीरमें देखिए ।
प्रमेह तथा मधुमेह (diabetes) सहज (hereditary) तथा अपथ्यनिमित्त (life style based) भेद से दो प्रकार के है। इनमें सहजप्रमेह से पीडित रोगी कृश, रूक्ष, अल्प खानेवाला, पिपासायुक्त तथा भ्रमणप्रिय होता है। अपथ्यनिमित्त प्रमेह से पीडित रोगी स्थूल, अधिक खानेवाला, स्निग्ध, शय्या आसन-स्वप्नशील होता है । जिन स्त्रीयों का मासिकधर्म नियनित होता है, उनको प्रमेह नहीं होता। निदान-दोष- दुष्य का परष्पर अनुबन्ध से रोगोत्पत्ति होता है। श्लेष्माजनक-मेद एवं मूत्र बृद्धिकर खाद्य का अतिरिक्त सेवन, शरीरमार्जन (स्नान, मल-मूत्र विसर्जन) एवं परिश्रम का त्याग प्रमेह का कारण है । अत्यधिक श्लेष्मा इसका मूल कारण है। श्लेष्मा घन होने से निकल जाता है। परन्तु पतला कफ शरीरके स्रोतवाही नाडियों में रहकर सान्द्रता के कारण उनमें गतिरोध सृष्टि करता है। जैसे पानी के नल दुषित जलप्रवाह से गुल्म (moss) सृष्टि हो कर पानी के साथ निकलते हैं, उसी प्रकार श्लेष्मा भी कठिनत्व प्राप्त (पार्थिव गुण युक्त) हो कर निकतला है । पृथ्वी तथा जल के सम्मिश्रणमें मधुररस का सृष्टि होता है। अतः मूत्र के साथ मधुर रस (sugar) निकलता है। मधुर रस (sugar) एक लक्षण है। रोग नहीं है । रोग तो प्रमेह तथा मधुमेह (diabetes) है। आधुनिक पद्धति में केवल उसी लक्षण का नियन्त्रण किया जाता है (Allopathy manages the symptoms – hence generates side effects ) रोग का चिकित्सा नहीं किया जाता। केवल आयुर्वेद ही रोग का चिकित्सा करता है (Ayurveda treats – the system – hence no side effect) ।
मधुरः कषायस्तिक्तोम्लकश्च क्षारः कटुः षड्सनामधेयम् ।
द्वयं द्वयं वाककफप्रकोपनं द्वयं तथा पित्तकरं वदन्ति ॥
लेखक:- आचार्य वासुदेव मिश्र
वेद विज्ञाता
सोमरस के बारे में वह सब कुछ जो आपको जानना चाहिए
महामारी जनित उपसर्गों का शास्त्रोक्त विवरण एवं शमन