24 अक्टूबर को आजाद हिन्द फौज की रानी लक्ष्मी रेजिमेन्ट की कमाण्डर तथा आजाद हिन्द सरकार में महिला मामलों की मंत्री कैप्टन लक्ष्मी सहगल का जन्मदिवस है। उनका जन्म 24 अक्तूबर 1914 को मद्रास उच्च न्यायालय के सफल वकील डॉ. एस. स्वामीनाथन के परंपरावादी तमिल में घर हुआ था| लक्ष्मी की माँ अम्मुकुट्टी एक समाज सेविका और केरल के एक जाने-माने स्वतंत्रता सेनानी परिवार से थीं जिन्होंने आजादी के आंदोलनों में बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था। लक्ष्मी शुरूआती दिनों से ही भावुक और दूसरों की मदद करने वाली रहीं। उनका कहना था कि यह बात उन्होंने अपनी मां से विरासत में पायी जो हमेशा दूसरों की मदद किया करती थीं।

कैप्‍टन लक्ष्मी सहगल पढ़ाई में कुशल थीं। वर्ष 1930 में पिता के देहावसान का साहसपूर्वक सामना करते हुए 1932 में लक्ष्मी ने विज्ञान में स्नातक परीक्षा पास की। वे शुरू से ही बीमार गरीबों को इलाज के लिये परेशान देखकर दुखी हो जाती थीं। इसी के मद्देनज़र उन्होंने गरीबों की सेवा के लिये चिकित्सा पेशा चुना और 1938 में मद्रास मेडिकल कॉलेज से एम.बी.बी.एस. की डिग्री हासिल की। उसके बाद उन्होंने डिप्लोमा इन गाइनिकोलॉजी भी किया और अगले वर्ष 1939 में वह महिला रोग विशेषज्ञ बनीं।

कुछ दिन भारत में काम करके 1940 में वे सिंगापुर चली गयीं। सिंगापुर में उन्होने न केवल भारत से आये आप्रवासी मज़दूरों के लिये निशुल्क चिकित्सालय खोला बल्कि भारत स्वतंत्रता संघ की सक्रिय सदस्या भी बनीं। द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान 1942 में जब अंग्रेज़ों ने सिंगापुर को जापानियों को समर्पित कर दिया तब लक्ष्मी जी ने आहत युद्धबन्दियों के लिये काफी काम किया। उसी समय ब्रिटिश सेना के बहुत से भारतीय सैनिकों के मन में अपने देश की स्वतंत्रता के लिये काम करने का विचार उठ रहा था।

Laxmi Shehgal, Netaji Subhash Chandra Bose and girls of Rani Jhansi Regiment

2 जुलाई 1943 का दिन ऐतिहासिक था जब सिंगापुर की धरती पर नेताजी सुभाष चन्द्र बोस ने कदम रखे। उनकी सभाओं और भाषणों के बीच आज़ाद हिन्द फौज़ की पहली महिला रेजिमेंट के विचार ने मूर्तरूप लिया जिसका नाम वीर रानी लक्ष्मीबाई के सम्मान में झांसी की रानी रेजिमेंट रखा गया। 22 अक्तूबर 1943 को डॉ. लक्ष्मी स्वामिनाथन झांसी की रानी रेजिमेंट में कैप्टन पद की सैनिक अधिकारी बन गयीं। बाद में उन्हें कर्नल का पद मिला तो वे एशिया की पहली महिला कर्नल बनीं। अब ये अलग बात है कि लोगों ने उन्हें हमेशा कैप्टन के रूप में ही याद रखा। डॉ. लक्ष्मी अस्थाई ‘आज़ाद हिंद सरकार’ की कैबिनेट में पहली महिला सदस्य बनीं। वह ‘आज़ाद हिन्द फौज’ की अधिकारी तथा ‘आज़ाद हिन्द सरकार’ में महिला मामलों की मंत्री थीं।

सुभाष चंद्र बोस के साथ कंधे से कंधा मिलाकर सेना मे रहते हुए उन्होंने कई सराहनीय काम किये। उनको बेहद मुश्किल जिम्मेदारी सौंपी गई थी। उनके कंधों पर जिम्मेदारी थी फौज में महिलाओं को भर्ती होने के लिए प्रेरणा देना और उन्हें फौज में भर्ती कराना। लक्ष्मी सहगल ने इस जिम्मेदारी को बखूबी अंजाम तक पहुंचाया। जिस जमाने मे औरतों का घर से निकालना भी जुर्म समझा जाता था उस समय उन्होंने 500 महिलाओं की एक फ़ौज तैयार की जो एशिया मे अपने तरह की पहली विंग थी।

द्वितीय विश्व युद्ध में जापान की हार के बाद ब्रिटिश सेनाओं ने आज़ाद हिंद फ़ौज के सैनिकों की भी धरपकड़ शुरू की तो 4 मार्च 1946 को लक्ष्मी सहगल भी सिंगापुर में गिरफ्तार कर ली गईं। 4 जुलाई 1946 में भारत लाये जाने के बाद आजादी के लिए तेजी से बढ़ रहे दबाव के बीच उन्हें रिहा कर दिया गया।

देश आजाद होने ही वाला था कि लाहौर के कर्नल प्रेम कुमार सहगल से उनके विवाह की बात चली और उन्होंने हामी भर दी। वर्ष 1947 में उनका विवाह प्रेम कुमार के साथ हो गया तथा वह कैप्टन लक्ष्मी स्वामीनाथन से कैप्टन लक्ष्मी सहगल हो गयीं। कैप्टन सहगल की दो बेटियां सुभाषिनी अली और अनीसा पुरी हैं। सुभाषिनी ने फ़िल्म निर्माता मुजफ्फर अली से विवाह किया। सुभाषिनी अली 1989 में कानपुर से मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी की सांसद भी रहीं। सुभाषिनी अली ने कम्युनिस्ट नेत्री बृन्दा करात की फ़िल्म अमू में अभिनेत्री का किरदार भी निभाया था। डॉ. सहगल के पौत्र और सुभाषिनी अली और मुज़फ्फर अली के पुत्र शाद अली फ़िल्म निर्माता निर्देशक हैं, जिन्होंने ‘साथिया’, ‘बंटी और बबली’ इत्यादि चर्चित फ़िल्में बनाई हैं। प्रसिद्ध नृत्यांगना मृणालिनी साराभाई उनकी सगी बहन हैं।

लक्ष्मी सहगल

पति की मृत्यु के बाद वे कानपुर में बस गयीं और प्रैक्टिस करने लगीं। बाद में वे सक्रिय राजनीति में आयीं और 1971 में मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी से राज्यसभा की सदस्य बनीं। वे अखिल भारतीय जनवादी महिला समिति (ऑल इण्डिया डेमोक्रेटिक्स वोमेन्स एसोसिएशन) की संस्थापक सदस्यों में रहीं। उन्होंने महिलाओं की सामाजिक व आर्थिक स्वतंत्रता के लिए काफ़ी संघर्ष किया। स्वतंत्रता आंदोलन में उनके महत्त्वपूर्ण योगदान और संघर्ष को देखते हुए उन्हें 1998 में भारत के राष्ट्रपति के. आर. नारायणन द्वारा पद्मविभूषण सम्मान से नवाजा गया।

वर्ष 2002 में 88 वर्ष की आयु में उनकी पार्टी (वाम दल) के लोगों के दबाव में वे पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम के ख़िलाफ़ राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव मैदान में भी उतरी लेकिन उन्हें हार का सामना करना पड़ा। लेकिन उनकी प्रतिष्ठा पर कोई आंच नहीं आई। एक लम्बे राजनीतिक जीवन को जीने के बाद 1997 में वह काफ़ी कमज़ोर हो गयीं। उनके क़रीबी बताते हैं कि शरीर से कमज़ोर होने के बाद भी कैप्टन सहगल हमेशा लोगों की भलाई के बारे में सोचती थीं तथा मरीजों को देखने का प्रयास करती थीं। उन्होंने इस उम्र तक में भी अनवरत कानपुर में मरीजों को देखना जारी रखा और उनके आर्य नगर स्थित क्लीनिक में मरीजों का भारी जमावड़ा रहता था।

98 वर्ष की आयु में 23 जुलाई 2012 की सुबह 11:20 बजे कानपुर के हैलेट अस्पताल में कैप्टन डॉक्टर लक्ष्मी सहगल का निधन हो गया, जहाँ उन्हें 19 जुलाई को दिल का दौरा पडऩे के बाद भर्ती कराया गया था। उसके बाद उन्हें ब्रेन हैमरेज हो गया और दो दिन बाद ही वह कोमा में चली गयीं। क़रीब पांच दिनों तक जिन्दगी और मौत से जूझने के बाद आखिरकार कैप्टन लक्ष्मी सहगल अपनी अन्तिम जंग हार गयीं। उनकी इच्छानुसार उनका मृत शरीर कानपुर मेडिकल कॉलेज को दान कर दिया गया था। स्‍वतंत्रता सेनानी, डॉक्‍टर, सांसद, समाजसेवी के रूप में यह देश उन्‍हें सदैव याद रखेगा। विनम्र श्रद्धांजलि एवं कोटिशः नमन|

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