जॉर्ज फर्नांडीस नहीं रहे| अल्जाइमर के चलते याददाश्त भुला देने से यादों से तो वो बहुत पहले ही ओझल हो गए, आज इस दुनिया से भी हमेशा के लिए ओझल हो गए| पीछे रह गयीं उनकी यादें जो उन्हें अवश्य भावुक करती रहेंगी जिनके लिए वो अनथक विद्रोही और गैर-कांग्रेसवाद के सबसे बड़े स्तम्भ थे| आपातकाल में गिरफ्तारी के बाद हथकड़ी पहने उनका चित्र तानाशाही के प्रति विरोध का प्रतीक बन गया और बड़ौदा डायनामाइट केस जैसा मामला मिथकीय किस्सा|

15 लाख से अधिक रेलवे कर्मचारियों को शामिल कर रेलवे की सबसे बड़ी हड़ताल कराने वाले जॉर्ज एक समय मुंबई के मजदूरों के बेताज बादशाह थे| एक ऐसा शख्स जो परिवार की उसे पादरी बनाने की इच्छा के विरुद्ध 19 वर्ष की आयु में एक अदद नौकरी के लिए मुंबई पहुंचा, चौपाटी की बेंचों पर सो कर जिसने दिन गुजारे, वो कैसे अपने संघर्ष और वक्तृत्व कला के दम पर मुंबई के मजदूरों का सबसे बड़ा नेता बन गया, ये भी एक फ़िल्मी कहानी सा लगता है|

श्री प्रदीप सिंह लिखते हैं,

खानदानियों ने जॉर्ज फर्नांडीस के साथ वही सलूक किया जो दुनिया भर में खानदानिए स्वतंत्रचेता शख़्सियतों के साथ सदा से करते आए हैं। जॉर्ज के हाथों में हथकड़ियां और पैरों में बेड़ियाँ बाँधी गईं। उनके भाई लारेंस को पुलिस लॉक अप में असहनीय यातनाएँ दी गईं। लोग कहते हैं लॉरेंस की मृत्यु इन्हीं अमानवीय यातनाओं के परिणामस्वरूप हुई।

बाद के दिनों में इन्हीं खानदानियों ने ऐसे बहादुर और प्रखर राष्ट्रभक्त पर ताबूत चोरी का घृणित आरोप लगाया। दिक्कत यह है कि चाँद पर थूकने वालों ने कभी एक प्राथमिक सबक़ न सीखा कि चाँद पर जब तुम मुँह उठा कर थूकते हो वह थूक गुरुत्वाकर्षण के कारण तुम्हारे चेहरे पर ही लौट आती है और चाँद की छवि यूं ही उधर आकाश में और इधर धरती पर लोगों के दिलों में झिलमिलाती रहती है।

बेईमानी के नाबदान में तैरते शूकरों से तो कोई और अपेक्षा न थी। पर लोकतंत्र के चौथे स्तम्भ पत्रकारिता के लम्बरदारों के व्यवहार पर भी एक नजर डालिए।

मुझे याद है कोई सात आठ वर्ष पूर्व बनारस में अरविन्दो कॉलनी में शाम के समय बैठा मैं टीवी देख रहा था। जार्ज के बारे में गरमागर्म खबर थी। वह खबर ही क्या जो गरमागर्म न हो । तब जॉर्ज अल्ज़ाइमर्स के शुरुआती दौर से गुज़र रहे थे। उनकी याददाश्त धूमिल पड़ती जा रही थी और अक्सर वे चेहरे पहचान नहीं पाते थे। उन्हें कोई शारीरिक बीमारी न थी पर योद्धा जॉर्ज अब एक छोटे शिशु की तरह असहाय थे। जैसी कि संसार की रीति है जॉर्ज की कस्टडी के बारे में उनके परिवार में युद्ध छिड़ गया था। जार्ज के शरीर का बायाँ हिस्सा दशकों से अलग रहने वाली, उनकी कभी सुध न लेने वाली एक ब एक पर्दे पर उतर आने वाली उनकी भूतपूर्व पत्नी लैला कबीर खींच रही थीं। जॉर्ज के लिए एक ब एक उनके दिल में प्यार का सैलाब जो उमड़ा था। और जॉर्ज के शरीर का दायाँ हिस्सा जार्ज के भाइयों और उनके जीवन के उत्तरार्ध की मित्र और उनकी सुध लेने वाली जया जेटली के हाथों में था। मामला ऊँची अदालत में था और पत्रकार चटखारे ले कर ब्योरेवार वर्णन कर रहे थे। विद्वान न्यायाधीश संसार की बहुमूल्य कानूनी बारीकियों की पांडित्यपूर्ण विवेचना में पूरे मनोयोग से लगे थे।

अचानक पर्दे पर जॉर्ज की तस्वीर उभरी। स्वाभिमानी और बहादुर, हमारी जवानी के हीरो जॉर्ज। हमारे जॉर्ज। जार्ज बदहवास बिविल्डर्ड सामने शून्य में कुछ देख रहे थे। अपने आसपास हो रही घटनाओं से बेख़बर। संसार और उसकी बहुमूल्य पेचीदगियों के बाहर।

भारतीय टीवी पर अमानवीयता और संवेदनशून्यता का लाइव कोर्स चल रहा था। मुझसे जॉर्ज का यह अपमान देखा न गया। मैं तिलमिला कर कुर्सी से उठा, खुली हवा में सांस लेने के लिए बाहर निकल गया।”

1950 आते-आते जॉर्ज फर्नांडीस टैक्सी ड्राइवर यूनियन के बेताज बादशाह बन गए| बिखरे बाल, और पतले चेहरे वाले फर्नांडिस, तुड़े-मुड़े खादी के कुर्ते-पायजामे, घिसी हुई चप्पलों और चश्मे में खांटी एक्टिविस्ट लगा करते थे| कुछ लोग तभी से उन्हें ‘अनथक विद्रोही’ (रिबेल विद्आउट ए पॉज़) कहने लगे थे| 1967 के लोकसभा चुनावों में उस समय के बड़े कांग्रेसी नेताओं में से एक एस. के. पाटिल को बॉम्बे साउथ की सीट से हराकर उन्होंने ‘जॉर्ज द जायंट किलर’ नाम भी अर्जित किया| आपातकाल के विरोध का तो वो चेहरा बन कर ही उभरे|

भारतीय परिवेश में पूरी तरह रचे बसे जॉर्ज फर्नांडीस मुझे इसलिए हमेशा प्रिय रहे क्योंकि वो उन कुछ एक लोगों में शामिल रहे, जिन्हें देखकर, सुनकर, पढ़कर कभी उनके धर्म, जाति, क्षेत्र, भाषा आदि का विचार मन में नहीं आया| रक्षामंत्री बनने के बाद जवानों को लेकर दिखाई गयी उनकी संवेदनशीलता ने हमेशा ही मन को छुआ| जॉर्ज फर्नांडीस अब नहीं हैं; पर मुड़े-तुड़े कुर्ते, हाथ में फाइलों को पकडे, कांग्रेसवाद पर प्रचंड हमलावर रहने वाले जॉर्ज की छवि उनके चाहने वालों के मन में हमेशा रहेगी|

यह भी पढ़ें,

देवेन्द्र स्वरूप नहीं रहे: एक प्रकाश स्तंभ का बुझ जाना

प्रखर हिन्दू विचारक थे नोबेल पुरस्कार विजेता विद्याधर नायपॉल

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here