1.6 C
Munich
Saturday, December 13, 2025

गुरु गोविन्द सिंह – एक महान कर्मप्रणेता, अद्वितीय धर्मरक्षक

Must read

विशाल अग्रवाल
विशाल अग्रवाल
लेखक शिक्षक, वरिष्ठ इतिहासविद एवं सामाजिक कार्यकर्त्ता

सिखपंथ के दशम गुरू, गुरू गोविन्द सिंह एक महान कर्मप्रणेता, अद्वितीय धर्मरक्षक, ओजस्वी वीर रस के कवि के साथ ही संघर्षशील वीर योद्धा भी थे। उनमें भक्ति और शक्ति, ज्ञान और वैराग्य, मानव समाज का उत्थान और धर्म एवं राष्ट्र के नैतिक मूल्यों की रक्षा हेतु त्याग एवं बलिदान की भावना कूट कूट कर भरी थी। ये उनकी अटूट निष्ठा तथा दृढ़ संकल्प की अद्भुत प्रधानता ही थी कि स्वामी विवेकानंद ने उनके त्याग एवं बलिदान का विश्लेषण करने के पश्चात कहा था कि ऐसे ही व्यक्तित्व का आदर्श सदैव हमारे सामने रहना चाहिए।

गुरु जी ने अपने अनुयायियों को धर्म की पुरानी और अनुदार परंपराओं से नहीं बांधा बल्कि उन्हें नए रास्ते बताते हुए आध्यत्मिकता के प्रति व्यावहारिक दृष्टिकोण दिखाया। संन्यासी जीवन के संबंध में गुरु गोविन्द सिंह ने कहा है – एक सिख के लिए संसार से विरक्त होना आवश्यक नहीं है तथा अनुरक्ति भी जरूरी नहीं है किंतु व्यावहारिक सिद्धांत पर सदा कर्म करते रहना परम आवश्यक है।

गुरुजी ने कभी भी जमीन, धन-संपदा, राजसत्ता-प्राप्ति या यश-प्राप्ति के लिए लड़ाइयां नहीं लड़ीं। उनकी लड़ाई होती थी अन्याय, अधर्म एवं अत्याचार और दमन के खिलाफ। उनकी लड़ाई सिद्धांतों एवं आदर्शों की लड़ाई थी और इन आदर्शों के धर्मयुद्ध में जूझ मरने एवं लक्ष्य-प्राप्ति हेतु वे ईश्वर से वर मांगते हैं- ‘देहि शिवा वर मोहि, इहैं, शुभ करमन ते कबहू न टरौं।’

गुरु गोविन्द सिंह का जन्म 22 दिसंबर सन् 1666 ई. एवं नानकशाही कैलेण्डर के अनुसार 5 जनवरी 1667 (पौष माह की तेइसवीं तिथि को विक्रम सम्वत 1723) को पटना, बिहार में नवम गुरु तेग बहादुर और गूजरी देवी के पुत्र के रूप में हुआ था। इनका मूल नाम ‘गोविंद राय’ था। गोविंद सिंह को सैन्य जीवन के प्रति लगाव अपने दादा गुरु हरगोविंद सिंह से मिला था और उन्हें महान बौद्धिक संपदा भी उत्तराधिकार में मिली थी।

गुरु गोविन्द सिंह के जन्म के समय देश पर मुग़लों का शासन था। हिन्दुओं पर औरंगजेब द्वारा असहनीय अत्याचार किये जाते थे। इन अत्याचारों से बचने की आस लिए एक बार कुछ कश्मीरी पंडित तेगबहादुर की शरण में आनंदपुर साहिब आये। तेगबहादुर औरंगज़ेब से इस विषय में बातचीत करने के लिए दिल्ली पहुँचे लेकिन औरंगज़ेब ने उन्हें गिरफ़्तार करवा लिया और उनसे मुस्लिम धर्म स्वीकार करने के लिए कहा।

मना किये जाने पर गुरु तेगबहादुर का सिर औरंगज़ेब के इशारे पर काट दिया गया। यह घटना 11 नवम्बर 1675 ई. में दिल्ली के चाँदनी चौक में हुई थी और आज वह स्थान शीशगंज गुरुद्वारा कहलाता है।।

तेगबहादुर की शहादत के बाद गुरु की गद्दी पर 9 वर्ष की आयु में ‘गुरु गोविंद राय’ को बैठाया गया था। ‘गुरु’ की गरिमा बनाये रखने के लिए उन्होंने अपना ज्ञान बढ़ाया और संस्कृत, फ़ारसी, पंजाबी और अरबी भाषाएँ सीखीं। गोविंद राय ने धनुष- बाण, तलवार, भाला आदि चलाने की कला भी सीखी। उन्होंने अन्य सिक्खों को भी अस्त्र शस्त्र चलाना सिखाया। सिक्खों को अपने धर्म, जन्मभूमि और स्वयं अपनी रक्षा करने के लिए संकल्पबद्ध किया और खालसा पंथ की स्थापना की जिसका उद्देश्य हिन्दू धर्म के अन्दर एक सैन्य शक्ति खड़ा करना था।

ख़ालसा का अर्थ है ख़ालिस अर्थात विशुद्ध, निर्मल और बिना किसी मिलावट वाला व्यक्ति। इसके अलावा हम यह कह सकते हैं कि ख़ालसा हमारी मर्यादा और भारतीय संस्कृति की एक पहचान है, जो हर हाल में प्रभु का स्मरण रखता है और अपने कर्म को अपना धर्म मान कर ज़ुल्म और ज़ालिम से लोहा भी लेता है।

गुरु जी द्वारा ख़ालसा का पहला धर्म है कि वह देश, धर्म और मानवता की रक्षा के लिए तन-मन-धन सब न्यौछावर कर दे। निर्धनों, असहायों और अनाथों की रक्षा के लिए सदा आगे रहे। जो ऐसा करता है, वह खालिस है, वही सच्चा ख़ालसा है। ये संस्कार अमृत पिलाकर गोविंद सिंह जी ने उन लोगों में भर दिए, जिन्होंने ख़ालसा पंथ को स्वीकार किया था।

किसी कवि ने क्या उत्तम वर्णन किया है–

एक से कटाने सवा लाख शत्रुओं के सिर
गुरु गोविन्द ने बनाया पंथ खालसा ।
पिता और पुत्र सब देश पे शहीद हुए
नहीं रही सुख साधनों की कभी लालसा ।
ज़ोरावर फतेसिंह दीवारों में चुने गए
जग देखता रहा था क्रूरता का हादसा ।
चिड़ियों को बाज से लड़ा दिया था गुरुजी ने
मुग़लों के सर पे जो छा गया था काल सा ।

एक आध्यात्मिक गुरु के अतिरिक्त गुरु गोविन्द सिंह एक महान विद्वान भी थे। उन्होंने 52 कवियों को अपने दरबार में नियुक्त किया था। गुरु गोविन्द सिंह की महत्त्वपूर्ण कृतियाँ हैं- ज़फरनामा एवं विचित्र नाटक। वह स्वयं सैनिक एवं संत थे। उन्होंने अपने सिखों में भी इसी भावनाओं का पोषण किया था। गुरु गद्दी को लेकर सिखों के बीच कोई विवाद न हो इसके लिए उन्होंने ‘गुरुग्रन्थ साहिब’ को गुरु का दर्जा दिया।

गुरु गोविन्द सिंह मूलतः धर्मगुरु थे, लेकिन सत्य और न्याय की रक्षा के लिए तथा धर्म की स्थापना के लिए उन्हें शस्त्र धारण करने पड़े। औरंगज़ेब को लिखे गए अपने ‘ज़फरनामा’ में उन्होंने इसे स्पष्ट किया है। उन्होंने लिखा था, चूंकार अज हमा हीलते दर गुजशत, हलाले अस्त बुरदन ब समशीर ऐ दस्त अर्थात जब सत्य और न्याय की रक्षा के लिए अन्य सभी साधन विफल हो जाएँ तो तलवार को धारण करना सर्वथा उचित है। उनकी यह वाणी सिख इतिहास की अमर निधि है, जो आज भी हमें प्रेरणा देती है।

भारत के गौरवमयी इतिहास में दो पत्र विश्वविख्यात हुए। पहला पत्र छत्रपति शिवाजी द्वारा राजा जयसिंह को लिखा गया तथा दूसरा पत्र गुरु गोविन्द सिंह द्वारा अत्याचारी तथा क्रूर मुगल शासक औरंगजेब को लिखा गया, जिसे जफरनामा अर्थात ‘विजय पत्र’ कहते हैं। नि:संदेह गुरु गोविन्द सिंह का यह पत्र आध्यात्मिकता, कूटनीति तथा शौर्य की अद्भुत त्रिवेणी है। वस्तुत: गुरु गोविन्द सिंह का जफरनामा केवल एक पत्र नहीं बल्कि एक वीर का काव्य है, जो भारतीय जनमानस की भावनाओं का द्योतक है।

अतीत से वर्तमान तक न जाने कितने ही देशभक्तों ने उनके इस पत्र से प्रेरणा ली है। गुरु गोविन्द सिंह के व्यक्तित्व तथा कृतित्व की झलक उनके जफरनामा से प्रकट होती है। उनका यह पत्र संधि नहीं, युद्ध का आह्वान है। साथ ही शांति, धर्मरक्षा, आस्था तथा आत्मविश्वास का परिचायक है। उनका यह पत्र पीड़ित, हताश, निराश तथा चेतनाशून्य समाज में नवजीवन तथा गौरवानुभूति का संचार करने वाला है। यह पत्र अत्याचारी औरंगजेब के कुकृत्यों पर नैतिक तथा आध्यात्मिक विजय का परिचायक है।

अपने अंत समय गुरु गोविन्द सिंह ने सभी सिखों को एकत्रित किया और उन्हें मर्यादित तथा शुभ आचरण करने, देश से प्रेम करने और सदा दीन-दुखियों की सहायता करने की सीख दी। इसके बाद यह भी कहा कि अब उनके बाद कोई देहधारी गुरु नहीं होगा और ‘गुरुग्रन्थ साहिब’ ही आगे गुरु के रूप में उनका मार्ग दर्शन करेंगे। गुरु गोविन्द सिंह की मृत्यु 7 अक्तूबर सन् 1708 ई. में नांदेड़, महाराष्ट्र में हुई थी। आज मानवता स्वार्थ, संदेह, संघर्ष, हिंसा, आतंक, अन्याय और अत्याचार की जिन चुनौतियों से जूझ रही है, उनमें गुरु गोविन्द सिंह का जीवन-दर्शन हमारा मार्गदर्शन कर सकता है। 

 विशाल अग्रवाल (लेखक भारतीय इतिहास और संस्कृति के गहन जानकार, शिक्षाविद, और राष्ट्रीय हितों के लिए आवाज़ उठाते हैं। भारतीय महापुरुषों पर लेखक की राष्ट्र आराधक श्रृंखला पठनीय है।)

यह भी पढ़ें,

हेमचन्द्र विक्रमादित्य – अंतिम हिन्दू सम्राट

पिछली सहस्त्राब्दि के महानतम हिन्दू सेनापति पेशवा बाजीराव

- Advertisement -spot_img

More articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -spot_img

Latest article