भारत में प्राचीन काल से ही श्री मंदिर के विग्रहों के लिये विशेष पाषाण चुनने का चलन रहा है| प्राचीन काल से संभवतः आज से करीब डेढ़ सौ साल पहले तक, जब से जयपुर में मूर्तिकारों का बाजार बना तबसे लगभग पूरे उत्तर भारत में सफेद संगमरमर की प्रतिमायें मंदिरो मे स्थापित होने लगीं| पहले के समय लगभग पौराणिक काल मे ही श्री विग्रह के लिये नेपाल के शालिग्राम क्षेत्र के गंडकी नदी के पाषाण का चयन होता था|भारत के कई प्रसिद्ध तीर्थों में शालिग्राम-शिला से बनी प्रतिमायें स्थापित पूजित हैं| कई तीर्थ तो पौराणिक काल के हैं और उन मूर्तियों का वर्णन पुराणों में है|
यह जो चित्र नीचे दिया है यह बुलढाणा जिले के मेहकर बालाजी का चित्र है इस तीर्थ का वर्णन स्कंद पुराण में घंकर नाम से है| यहां भगवान विष्णु की शार्ंगधर मूर्ति है और लगभग ग्यारह फुट उंची है| यहां के दर्शन हमने २००५ में किये थे और हमारा दावा है की भारत भर मे ऐसी विलक्षण और कलात्मक प्रतिमायें बहुत कम होंगी| इनकी वन माला और कीरीट इतने अलंकृत है की देख कर आदमी विस्मित हो जाता है|पैनगंगा नदी के तट पर यह मंदिर है इसके बारे मे कई लोग कहते हैं की यह पूरी मूर्ति एक शालिग्राम-शिला पर बनी हुई है| पर हमारे आचार्य ने बताया की शालिग्राम बहुत कोमल पत्थर है तो उसकी इतनी बड़ी प्रतिमा बनना संभव नहीं है|

ठेठ दक्षिण मे कई विग्रह शालिग्राम शिला के ही बने हैं|उनमें एक बाल नृसिंह का विग्रह बहुत प्रसिद्ध है| सुदूर थिरुअनन्तपुरम के श्रीपद्मनाभस्वामी मन्दिर में भगवान पद्मनाभस्वामी की मूर्ति भी कई हजार शालिग्राम शिलाओं से निर्मित हुई है| भगवान के श्रीविग्रह पर एक आयुर्वेदिक लेप “कड़ुशर्करा योगम्” लगा कर ही शालिग्राम जोड़कर वह प्रतिमा बनी है। सदियों पहले कटहल काष्ठ की प्रतिमा थी पर कभी मन्दिर जल उठा तो प्रतिमा भी दग्ध हो गई| तब बारह हजार शालिग्राम मगाँकर यह प्रतिमा बनी| इसके अलावा बार्शी जो महाराज अंबरीश की राजधानी है वहां उनके पूजित विष्णु जो भगवंत कहलाते है उनकी प्रतिमा शालिग्राम शिला मे निर्मित है| (हालांकी नवीन नवीन संप्रदाय अपने यहां की प्रतिमाओं को अंबरीश का पूज्य बताते हैं) प्रतापगढ़ की प्रसिद्ध भवानी माता की प्रतिमा के लिये छत्रपति शिवाजी महाराज ने शालिग्राम-शिला लाने अपने आदमियों को नेपाल भेजा था जहां से यथोचित शिला लाकर उससे भवानी माता की प्रतिमा बनाई गई थी|

बद्रीनाथ के श्री योगनारायण भगवान की प्रतिमा भी शालिग्राम शिला की ही है ये बात अलग है की वह स्वयंभू हैं|वहीं जोशीमठ स्थित नृसिंह भगवान की कैवल्य नृसिंह रूप की प्रतिमा भी शालिग्राम से निर्मित है| काशी मे विश्वनाथ मंदिर के ठीक द्वार पर स्थित भगवान ढुण्डिराज गणपति का निर्माण राजा दिवेदास ने गंडकी के पाषाण मतलब शालिग्राम शिला से ही करवाया था यह वर्णन कई ग्रंथो में आया है|

शाक्तों में श्री कुल में शालिग्राम शिला पर बने श्री चक्रराज मे गोपालसुंदरी का यजन तो होता ही है पर ढूँढने पर आपको और भी कई मंदिरों में शालिग्राम-शिला से बनी मूर्तियां मिल जायेंगी विशेष कर मध्व संप्रदाय के मंदिरो में|

ऐसे ही वृन्दावन में राधारमण बिहारी के त्रिभंगी मुद्रा के राधारमण भी केवल एक छोटे शालिग्राम पर प्रकट हैं जो कि अद्भुत मूर्ति है|

श्री राधारमण बिहारी, वृंदावन
यह बात ऐसे निकली की हम अपने लिये शालिग्राम-शिला से एक विशेष श्री विग्रह बनाने इच्छुक थे| देवी दक्षिणामूर्ति की कृपा से उसके लिये पर्याप्त बड़ी शालिग्राम-शिला की भी व्यवस्था हो गई थी| फिर मूर्ति का निर्माण करवाने के लिये हमने हमारे मित्र से संपर्क किया वो बेचारे इस वजह से खूब परेशान हुये|उनने कई कारीगरों से बात करी पर जो जवाब कारीगरों ने दिया वह हैरान करने वाला था| शालिग्राम-शिला पर छेनी हथौड़ा चलाने के नाम से कारीगरों ने हाथ जोड़ दिये और शांतम पापम कह कर कान पकड़ लिए| एक कारीगर ने तो यह कह दिया की, “अगर शिला के बराबर सोना भी तोल दो तो हम ये काम नही कर पायेंगे गुरू जी”|
हमारे लिये ये बात निराश करने वाली थी पर हम उल्टा इतने प्रसन्न हुये की शरीर का रोम रोम हर्षित हो गया| हम सोचे यही भाव पार लगाने वाला है की यह शिला शिला नही हमारे प्रभु की देह है या प्रभु ही है|जो भाव हम भी नही धारण कर पाये आजतक|जहां आजकल कई साधक शिरोमणी ब्रह्मवंश संभव बगला यंत्र, श्री यंत्र, लक्ष्मी यंत्रादि की दुकान लगा कर अपने इष्ट देवताओं को बेचते है फिर रहे हैं वहीं हम यह सुनकर गदगद हो गये की नही अभी भी परमात्मा के प्रति भाव रखने वाले साधक धरती पर हैं| हमने भैया से कहा की हमारी ओर से उन कारीगरों को दंडवत कहियेगा|