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भारत की आर्थिक समृद्धि का इतिहास – भाग 1

एक डॉलर 70 रुपए का हो गया और साथ ही कुछ लोग इस बात से भी बहुत कन्फ़्यूज़ हैं की हम विश्व में छठी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था हैं फिर छठी करेंसी क्यों नहीं हैं। डॉलर और रुपए का खेल शुरू हुआ था 1952 में जैसा कि मैंने पिछले भाग में लिखा था कि अंग्रेजों की अनवरत लूट का परिणाम यह हुआ की विश्व व्यापार (विश्व GDP ) का 35% हिस्सेदार भारत मात्र दो सौ वर्षों में किस तरह 2% पर सिमट कर गया। क्यों रुपया गिरते गिरते 70 रूपए प्रति डॉलर के निम्नतम स्तर पर पहुँच गया है?

उसके बावजूद जब गोरे अंग्रेजों ने काले अंग्रेजों के हाथ में सत्ता दी थी उस समय भारत किसी देश का एक रुपए का भी क़र्ज़दार नहीं था। हमारी सैद्धांतिक और सांस्कृतिक मान्यता है कि “तेते  पाँव पसारिये जेती लंबी सौर(चादर)” लेकिन अफ़सोस की देश 1947 के बाद जब आगे बढ़ा तो इस सिद्धांत को बहुत पीछे छोड़कर चार्वाक दर्शन से बढ़ा “ऋणम कृत्वा घृतम पिबेत”।

हमने नेहरु जी के नेतृत्व में पहली बार 1952 में कर्ज़ लिया। किससे? जो हमको इतना दिन लूटकर गए थे उन लोगों से ही! फिर दुबारा 1957, 1962 में 1967, 1972, 1977, 1982 में और उसके बाद प्रति वर्ष फिर कई बार तो साल में दो बार भी एक बार घी पीने के लिए और दूसरी बार जो पहले का कर्ज़ है उसका ब्याज चुकाने के लिए। इस तरह हम कर्ज़ लेकर काम चलाने लगे। जब कोई भी बैंक आपको कर्ज देता है तो अपनी शर्त पर देता है। उन लोगों ने भी अपनी शर्त थोपी।

शर्त क्या थी? शर्त थी अपने बाजार हमारे लिए खोल दीजिए। हम सब जानते हैं की भारत लगभग 135 करोड़ लोगों का बाज़ार है। शर्त अनुसार उनकी कम्पनीज यहाँ आएँगी और अपना व्यापार करेंगी। मुनाफ़ा लूटकर ले जाएँगी। यह लूट का दूसरा चरण था जो अधिक भयानक था। एक ईस्ट इंडिया कम्पनी ने हमको दो सौ साल लूटा। हम पहले से आख़िरी पायदान पर आकर गिरे अब तो हज़ारों कम्पनी हैं।

उसके बाद ग्लोबलाईजेशन और लिब्रलाईजेशन के नाम पर लूट शुरू हुई। जिसके नाम पर विदेशी कम्पनियां भारत आती गयीं। अब कुछ लोग उछाल मारकर आ जाएँगे की इसके बहुत फ़ायदे हैं। और बिना इसके कैसे सम्भव है? हमको यही सब समझाया गया शुरू से ही कि बाहर की कम्पनीज़ आएँगी मार्केट में कॉम्पटिशन बढ़ेगा आपको फ़ायदा मिलेगा। सच्चाई इसके उलट है एक उदाहरण देता हूँ।

भारत Coca-Cola आयी थी उस समय पारले का thumsup मार्केट में था और campacola मार्केट में था। यह दोनों स्वदेशी थे। Coca-Cola ने क्या किया? करने तो compitition आयी थी। लेकिन प्रचारतंत्र और सरकारी छूट का फ़ायदा उठाकर उसने thumsup को टेकओवर कर लिया। कैम्पा भी मार्केट से गायब हो गया। कॉम्पटिशन दो बराबर लोगों में होता है एक धनपशु और दूसरा बेचारा छोटी पूँजी वाला। क्या कॉम्पटिशन होगा उनमें? परिणाम हुआ की एक दूसरी वाली को निगल गई।

जब स्वदेशी ब्राण्ड मार्केट में था उस समय 2 रुपए कुछ पैसे क़ीमत थी 300ml की अब एक लीटर की क़ीमत 80 रुपए है माने 300ml की लगभग 24 रुपए माने 1200% का इज़ाफ़ा हुआ क़ीमत में। या यूँ कहिए की 12 गुना दाम बढ़ाए गए कितने वर्षों में ? कुछ दस पंद्रह साल में। यह होता है globalisation का इफ़ेक्ट! एक तो यह परिणाम हुआ यह मात्र एक उदाहरण था ऐसे कई उदाहरण भरे पड़े हैं। दूसरा और उससे भी घातक था कि जिस देश से आप लोन लेंगे उसी देश की करेन्सी में चुकाना होगा। और साथ ही उस देश की करेन्सी की क़ीमत बढ़ाना भी होगा। माने रुपए की क़ीमत कमजोर होगी उस करेन्सी के मुक़ाबले।

मैंने मनमोहन सिंह जैसे विश्व बैंक के प्यादे प्रधानमंत्री का वह भाषण सुना था जिसमें उन्होंने पूरे देश के नेताओं को भरी संसद में मूर्ख बनाया और कहा कि अगर हम अपनी करेन्सी को गिरा देंगे तो एक्स्पॉर्ट से अधिक रुपए कमा सकते हैं। सुनने में सबको अच्छा लगा आपको भी लगेगा ख़ूब तालियाँ बजी थीं। लेकिन महान अर्थशास्त्री मनमोहन सिंह में यह नहीं बताया कि मुनाफ़ा किस प्रकार प्रभावित होगा। अब आप सोचिए जब एक रुपए का एक डॉलर था तो हम एक किलो चावल बेचकर 14 रुपए के हिसाब से 14 डॉलर कमाते थे। लेकिन अब उसी दाम में पाँच किलो चावल बेचकर केवल 1 $ कमा सकते हैं। अब हमको सत्तर गुना चावल बेचना पड़ेगा उतनी क़ीमत के लिए क्योंकि $ सत्तर गुना मजबूत है।

इस तरह डॉलर और रुपए का खेल खेला जाता है। आज स्थिति यह है कि पुराना कर्ज़ ही अगर चुकाना पड़े नया न लें तो भी प्रति व्यक्ति 52000रुपए कर्ज़ देना पड़ेगा। आज से 10 साल पहले सन 2006-07 में भारत का विदेशी ऋण 172.4 बिलियन अमेरिकी डॉलर का था जो कि 2010-11 में 317.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर हो गया 2014-15 में 475 बिलियन अमरीकी डॉलर और 2016 में 485.6 बिलियन अमरीकी डॉलर अर्थात भारत के सकल घरेलू उत्पाद के 23.7% तक पहुँच गया हैl इस 485.6 बिलियन अमरीकी डॉलर का 17.2% ऋण अल्पकालीन अवधि के लिए जबकि 82.8% दीर्घकालीन अवधि के लिए है।

वित्त मंत्री अरुण जेटली ने लोकसभा में एक प्रश्न के लिखित जवाब में यह जानकारी दी। वित्त वर्ष 2015-16 में कर्ज पर दिया गया ब्याज 4,41,659 करोड़ रुपये रहा। यह आँकड़े सिर्फ़ 2016 तक के उपलब्ध हैं। इस प्रकार जब तक यह खेल चलता रहेगा भारत कभी भी विकसित राष्ट्र नहीं बन सकता है। अच्छी बात यह है की वर्तमान सरकार ने पिछली की तुलना में कुछ कम कर्ज़ लिया है। लेकिन पिछला कर्ज़ ही इतना अधिक है की हम उसके चुका पाने में असफल हैं।

अब बात करते हैं हम छठी बड़ी अर्थव्यवस्था हैं छठी करेंसी क्यों नहीं? उसका सीधा सा कारण है की हमारा कुल योगदान विश्व बाज़ार में बहुत कम है। आप छठे नम्बर पर हैं लेकिन जो पहले नम्बर पर है वह आपसे कितना आगे हैं उस हिसाब से आपकी करेन्सी की क़ीमत होती है। गोरे अंग्रेजों की लूट से टूट चुका भारत आज काले अंग्रेजों की लूट से त्रस्त है। जब तक हम स्वदेशी पर नहीं आएँगे यह जारी रहेगा कोई नहीं रोक सकता है।

शैलेन्द्र सिंह, लेखक राष्ट्रिय, सामाजिक मुद्दों के विशेषज्ञ और समसामयिक विषयों पर लिखते हैं.

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