महामहिम आद्यगुरू भगवान शंकराचार्य जी के अद्वैतवाद में कई ऐसी अवधारणायें हैं जो बौद्ध दर्शन के महायानी संप्रदायों माध्यमिक शून्यवाद तथा योगाचार विज्ञानवाद से मिलती-जुलती हैं। यही कारण है कि विभिन्न दर्शनों के कई आचार्यों ने आक्षेप किया है कि शंकर का अद्वैतवाद बौद्ध दर्शन विशेषतः माध्यमिक शून्यवाद का ही वेदान्ती संस्करण है। रामानुज, मध्वाचार्य, वल्लभ, शालिकनाथ तथा भास्कर जैसे वैष्णव वेदान्तियों ने तो यह आक्षेप किया ही है; विज्ञानभिक्षु जैसे सांख्याचार्य, उदयन और भीमाचार्य जैसे नैयायिकों ने भी ये आक्षेप किया है। समकालीन भारतीय विचारकों में पं. राहुल सांकृत्यायन तथा प्रो. एस.एन. दासगुप्ता की धारणा भी यही है कि शंकर प्रच्छन्न बौद्ध हैं।
प्रच्छन्न बौद्ध कहने का तात्पर्य है कि शंकर बाह्य रूप में उपनिषद और ब्रह्मसूत्र की व्याख्या करते हैं किन्तु छिपे रूप में वे बौद्ध दर्शन की मान्यताओं को ही प्रस्तुत करते हैं।
आक्षेप के आधार –
1) शून्यवाद ने सभी वस्तुओं की व्याख्या करने के लिए चतुष्कोटि की अवधारणा प्रस्तुत की है। ये चार कोटियाँ हैं – सत्, असत्, सदसत्, न सत् नासत्। शून्यवादियों के अनुसार जगत् की सभी वस्तुएँ चारों कोटियों से व्याख्यायित नहीं हो सकतीं क्योंकि वे स्वभावशून्य हैं। शंकर भी चारों कोटियों को स्वीकार करते हैं और जगत् के मिथ्यात्व का प्रतिपादन इसी आधार पर करते हैं कि वह चारों कोटियों से अव्याख्येय या विलक्षण है।
2) माध्यमिक शून्यवाद जिस परमार्थिक सत्ता को स्वीकार करता है, वह शून्यता है। शून्यता अनिर्वचनीय है क्योंकि वह बुद्धि के चारों कोटियों से परे है। शंकर ने भी अपने पारमार्थिक सत् अर्थात् ब्रह्म को अनिर्वचनीय माना है।
3) माध्यमिक शून्यवाद में सत्ता के तीन स्तर प्राप्त होते हैं – “परमार्थ”, “लोक संवृत्ति” तथा “मिथ्या संवृत्ति”। शंकराचार्य ने भी इन्हीं तीनों सत्ताओं के समानान्तर “परमार्थ”, “व्यवहार” और “प्रतिभास” के भेद को स्वीकारा है। दोनों ही व्यक्तिगत व क्षणिक भ्रम को निम्नतम स्तर पर, सामूहिक व दीर्घकालिक भ्रम को मध्यम स्तर पर तथा पूर्णतः नित्य व अबाधित सत् को सर्वोच्च स्तर पर रखते हैं। ध्यातव्य है कि योगाचार विज्ञानवाद में भी “परिनिष्पन्न”, “परतंत्र” तथा “परिकल्पित” नामक तीन स्तर स्वीकारे गये हैं, जो इन्हीं तीनों के समकक्ष हैं।
4) माध्यमिक शून्यवाद की एक प्रमुख धारणा “अजातिवाद” है जिसके अनुसार किसी भी वस्तु का किसी भी कारण से जन्म नहीं होता – न स्वतः , न परत: , न उभय और न ही अनुभय। जितनी वस्तुएँ उत्पत्तिविनाशशील ज्ञात होती हैं, वे सब संवृत्तिमात्र हैं। शंकराचार्य भी मानते हैं कि जगत् तथा जागतिक वस्तुएँ उत्पन्न होती ही नहीं; वे तो ब्रह्म के विवर्तमात्र हैं।
आक्षेपकों का खण्डन –
1) माध्यमिक शून्यवाद अपने परम तत्व की व्याख्या चतुष्कोटिविनिर्मुक्त के रूप में करता है क्योंकि शून्यता बुद्धि की चारों कोटियों के परे है। इसके विपरीत, शंकराचार्य अपने परम तत्व ब्रह्म को अनिर्वचनीय तथा निर्गुण कहते हुए भी उसे सत् मानते हैं (सत् ब्रह्म का गुण नहीं स्वरूप है)।
2) शून्यवाद की तर्कपद्धति मूलतः खण्डनात्मक मात्र है क्योंकि वे शून्यता को भी स्थापित नहीं करना चाहते। नागार्जुन और चन्द्रकीर्ति ने कहा भी है कि परमार्थत: न हमारी कोई प्रतिज्ञा है, न ही तर्क। इसके विपरीत शंकर की तर्कपद्धति मण्डनात्मक है क्योंकि वे “ब्रह्म सत्यं” तथा “जीवो ब्रह्मैव नापर:” जैसी धारणाओं का मण्डन स्पष्टतः करते हैं।
3) शून्यवाद अनात्मवादी है जबकि शंकर आत्मवादी हैं। शंकर का ब्रह्म ही नित्यात्मा है।
4) विज्ञानवाद बाह्य जगत् की सत्ता को पूर्णतः नकारता है क्योंकि इन्द्रियों से प्रत्यक्ष होने वाले सभी ज्ञान विज्ञान स्वरूप हैं, न कि भौतिक वस्तुएँ। शंकर जगत् को ब्रह्म का विवर्त मानने बावजूद व्यावहारिक स्तर पर वस्तुवाद में विश्वास करते हैं, न कि विज्ञानवाद में।
5) बौद्ध दर्शन प्रत्यक्ष और अनुमान सिर्फ दो प्रमाण मानता है जबकि शंकर छ: प्रमाण स्वीकारते हैं।
6) बौद्ध दर्शन निरीश्वरवादी है जबकि शंकराचार्य ब्रह्म तथा ईश्वर की धारणा को स्वीकारते हैं।
7) बौद्ध दर्शन के अनुसार जगत् दु:खों से भरा है, ये दु:ख प्रतीत्यसमुत्पन्न होने से कारणयुक्त है; और इनके कारण का निषेध करके दु:खों से मुक्ति प्राप्त हो सकती है। इसके विपरीत शंकर के अनुसार मूल सत्ता सिर्फ ब्रह्म की ही है जो आनन्द स्वरूप है। जगत् में विद्यमान दु:ख सिर्फ आभासी हैं क्योंकि जगत् खुद ही ब्रह्म का विवर्तमात्र है।
एक और आक्षेप
कुछ दार्शनिकों का यह भी आक्षेप है कि सिर्फ शंकर नहीं बल्कि उनके परम गुरू गौड़पादाचार्य का दर्शन भी बौद्ध दर्शन का पुनर्प्रस्तुति मात्र है। उनका तर्क है कि गौड़पाद का “अजातिवाद” शून्यवाद से लिया गया है; “अस्पर्शयोग” की धारणा विज्ञानवादियों की विज्ञप्तिमात्रता की नकल है; तथा “प्रसंग विधि” शून्यवादियों की निषेधात्मक द्वन्द्वविधि या प्रसंगापादन विधि से प्रभावित है। वस्तुतः ये आक्षेप भी ठोस नहीं है क्योंकि अजातिवाद मूलतः उपनिषदों में ही दिखाई देता है। पुनः, अस्पर्शयोग में वास्तविक जगत् का निषेध नहीं किया गया है जबकि विज्ञप्तिमात्रता में वस्तुओं का निषेध है। पुनः, नागार्जुन की तर्क पद्धति मूलतः खण्डनात्मक है जबकि गौड़पाद की प्रसंगविधि मण्डनात्मक है। यह विधि भी मूलतः उपनिषदों से ही ली गई है। “नासदीय सूक्त” में कहा भी गया है कि पहले न सत् था न ही असत्।
संपूर्ण विश्लेषण के आधार पर शंकराचार्य को प्रच्छन्न बौद्ध कहना उचित प्रतीत नहीं होता। यह सत्य है कि अद्वैतवाद की कुछ धारणाएँ बौद्ध दर्शन से मिलती-जुलती हैं, किन्तु इन धारणाओं का मूल स्वरूप उपनिषदों में ही दिखाई पड़ता है। जिस प्रकार बौद्ध-दर्शन को “प्रच्छन्न उपनिषद दर्शन” कहना उचित नहीं होगा, वैसे ही शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध कहना अनुचित है। ब्लूमफील्ड ने कहा भी है कि बौद्ध सहित सभी भारतीय दर्शनों के सभी सिद्धांतों के बीज उपनिषदों में ही विद्यमान है।
– श्री राहुल सिंह राठौड़ (लेखक इतिहासज्ञ, दर्शनशास्त्री, सनातन धर्म के मर्मज्ञ एवं ज्योतिषी हैं।)
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