कुछ बुद्धिमान जन भगवान हरि(विष्णु) का भजन करते हैं, और कुछ दूसरे संसार तापहारी हर(शंकर) की सेवा करते हैं। किन्तु धर्म की हानि से खिन्न मनवाले हम लोगों की उपासना का पात्र तो हरि और हर का वह अनुपम अद्वैत है, जिसे हमने अपनी आंखों से देखा है। (श्रीस्वामी करपात्रीजी महाराज के संन्यास का नाम श्रीहरिहरानन्द सरस्वती है) ||१||

“क्या उदात्त लोककल्याकारिणी राजनीति में प्रवीण ‘विष्णुगुप्त’– आचार्य चाणक्य, या समस्त शास्त्रों में दक्ष देवगुरु ‘बृहस्पति’ हैं, या फिर श्रीप्रभु का गुणगान करने से धन्य हुए ‘शुकदेवजी’ ही हैं?” जिनके बारे में लोग ऐसा सन्देह किया करते थे — वे स्वामी करपात्रीजी महाराज वंदना के पात्र हैं ||२||

जिनकी जिह्वा पर नवरसमयी सरस्वती निवास करती थी, लेखों के रूप में जिनकी महान यशोराशि की लेखाएँ आज भी शोभा पा रही हैं, और जिनके हृदय में कमल के मध्यभाग सरीखी मृदुलता थी, वे सर्वभूतहृदय संयमी स्वामी करपात्रीजी किसके स्मरणीय नहीं हैं? ||३||

वंदनीय हैं वे स्वामी करपात्रीजी महाराज जिन मनीषी ने अनेकानेक धर्मसंस्थाओं की स्थापना की, जिन्होंने रामायण पर एवं वेदों पर सरस्वती धाराएं प्रवाहित कीं, जिन्होंने भूमण्डल पर निष्काम कर्म अर्थात् ज्ञानमार्ग की सर्वोच्च सिद्धान्तरूप में प्रतिष्ठापना की, किन्तु जो प्रयाणकाल तक दूसरों द्वारा न किए गए कर्म का संपादन करते रहे ||४||

जो अनवद्य विद्यावान ‘शुक्र’ थे, जो गुरुओं के भी गुरु ‘बृहस्पति’ थे, जो विद्वानों के कल्याणरूप ‘मंगल’ थे, प्रचण्ड प्रताप में जो ‘सूर्य’ थे और सज्जनों के लिए जो सोम ‘चन्द्रमा’ थे, धर्मद्वेषियों के लिए जो ‘शनि’ थे, अहंकारियों के लिए ‘राहु’ थे और कलियुग के लिए विजय-वैजयंती ‘केतु’ थे, वे विलक्षण यतिराज स्वामी करपात्रीजी जयशील हैं ||५||

गौरक्षार्थ जेल यात्राओं से, यहाँ तक कि सिर पर लाठी पड़ने से लगी चोटों से भी जो अपने मार्ग से विचलित नहीं हुए, जो सनातन धर्मगौरव के दीपक थे और जिनको जीतना देवगुरु बृहस्पति के लिए भी कठिन था, वे स्वामी करपात्रीजी महाराज हमारे हृदय में सदा विराजमान हैं ||६||

“लोग छल पाप छोड़कर सन्मार्ग पर आरूढ़ रहें, हिंदी का प्रसार समुद्रपार विदेशों में भी हो, घड़ों के सदृश थनों वाली गायें हत्या के भय से मुक्त होकर चारों ओर विचरण करें”— यतिराज! आपका यह सपना भला कब फलीभूत होगा ||७||

जो दण्डी संन्यासियों के शिरोमणि थे। बड़े बड़े यतिराज भी जिनकी जीवनचर्या को जीवन में चरितार्थ नहीं कर सकते, जो देश-विदेश में श्रुतिमार्ग के एकमात्र रक्षक थे और जो श्रेयभाजन तथा श्रेयप्राप्त सज्जनों के स्वामी थे —– वे शलाध्य श्री करपात्रीजी महाराज हमारे हृदय सिंहासन में धारणीय हैं ||८||

(करपात्री जी महाराज की यह वन्दना श्री शशिधर शर्मा महामहोपाध्याय कृत श्री करपात्राष्टकम से ली गयी है|)

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