पद्मिनी स्कूल की बात है, स्कूल में जब कोई टीचर नहीं आते थे तो उनकी जगह टेम्परेरी टीचर कुछ दिन के लिए पढ़ाने आते थे। तब मैं सातवीं क्लास में था और हमारी हिन्दी की मैम एक दो महीने के लिए बाहर गयीं थीं। उनकी जगह एक नीरज सर पढ़ाने आने लगे। टेम्परेरी टीचर्स अक्सर मस्त होते हैं, मज़े में पढ़ाते हैं। हम थे भी तब छोटे तो वो हमको कहानियाँ सुनाया करते थे। हम रोज उनके पीछे पड़ जाते सर कहानी, सर कहानी! अब उनको कोर्स भी कवर करना होता था तो हफ्ते में 2-3 कहानी तो सुना ही देते थे। जब वो कहानी सुनाते तो सारी क्लास चुपचाप सुनती, SUPW के पीरिएड भी वो ही ले लेते और हम कहानी सुनते रहते।
पद्मिनी ज्यादातर वो इतिहास की बातें बताते, एक बार उन्होंने स्वामी विवेकानन्द की कहानी सुनाई, कैसे उन्होंने शून्य पर भाषण दिया। एक बार भानगढ़ के भूतों की और एक बार राजा हम्मीर की, एक बार भगत सिंह की और एक बार अक़बर के नवरत्नों की। पर जिस कहानी ने हमें पूरी तरह झकझोर डाला था और कई साल तक क्लास के सब बच्चे उस कहानी की वजह से उनको याद करते रहे वो कहानी थी रानी पद्मिनी के जौहर की। क्लास में वीररस की वर्षा हो रही थी। शायद ही कोई ऐसा बच्चा था जिसके रोंगटे खड़े न हों। चित्तौड़ के किले की विश्वसुन्दरी रानी के सौंदर्य, उसके पति के अद्भुत पराक्रम, क्षत्रियों की विस्मयकारी रणनीति, आततायी ख़िलजी की नीचता और किले की हज़ारों वीरांगनाओं के भीषण जौहर की वह कहानी मेरे दिल में आज तक ज्यों की त्यों बनी हुई है। चित्तौड़ के किले की मिट्टी आज भी काली है। चित्तौड़ के किले से रात आठ बजे बाद आज भी मर्माहत चीखें सुनाई पड़ती हैं। यह सुनकर हम बच्चे अनुमान लगा पाते थे कि जिन्दा जलने का दर्द क्या होता है? पर बौद्धिक पशु यह नहीं समझ सकते कि क्यों उस फूल सी कोमल रानी ने अपनी सुंदरता समेत स्वयं को दावानल में झुलसा डाला था? क्यों किले की हज़ारों औरतें, बच्चे, बूढ़े आग के दरिया में हंसकर कूद पड़े? रतन सिंह, गोरा और बादल जैसे हज़ारों क्षत्रिय वीरों ने अपने प्राण युद्ध में बलिदान कर दिए? मैं बचपन में सुनी उस कहानी को आज इसलिए लिख रहा हूँ क्योंकि वेटिकन-अरब के टुकड़ों पर पलने वाले बॉलीवुड के जानवरों ने हिन्दुओं की माँ बहनों के साहस और बलिदान का भद्दा मज़ाक बना डाला है।
पद्मिनी महारानी पद्मिनी संसार की अद्वितीय सुंदरी थीं, देश देशांतर में उनकी सुंदरता की कथाएं प्रसिद्ध थीं। जब अलाउद्दीन खिलजी ने यह बात सुनी तो सत्ता के मद में उसकी हवस जाग उठी और रानी पद्मिनी को पाने के लिए चित्तौड़ पर भारी सेना के साथ हमला बोल दिया। युद्ध महीनों चला पर राजपूतों के दुर्ग में पांव धरने में वह सफल न हुआ। इससे क्षुब्ध ख़िलजी ने कपट भरी चाल रची कि यदि राजा पद्मिनी का मुख भर दिखा दें तो वह दिल्ली लौट जाएगा। रतन सिंह और राजपूतों का खून खौल उठा, परन्तु स्वयं के कारण अनावश्यक रक्तपात न हो, आखिर विशाल सेना के सामने छोटी सी राजपूत सेना कब तक जूझती, चित्तौड़ की प्रजा की बर्बादी रोकने के लिए महारानी बोलीं कि उसे मेरा प्रतिबिम्ब दिखाने की अनुमति दी जा सकती है। कुटिल ख़िलजी इस बात पर मान गया। सुल्तान का राजसी आतिथ्य हुआ। रानी को आईने के सामने बिठाया गया। आईने से खिड़की के ज़रिये रानी के मुख की परछाई सरोवर के पानी में साफ़ पड़ती थी। वहीं से अलाउद्दीन को रानी का मुखारविंद दिखाया गया। सरोवर के जल में रानी के मुख की छाया मात्र देखकर ख़िलजी की हवस ज्वाला बन गई। और उसने किसी भी कीमत पर पद्मिनी के हरण का निश्चय कर लिया। मलेच्छों को अपनी स्त्रियां दिखाएं यह राजपूती शान के खिलाफ है। असल में प्रतिबिम्ब भी एक दासी का ही दिखाया गया था। दुर्ग से लौटते समय ख़िलजी और उसकी तैयार सेना ने आक्रमण कर दिया और रतन सिंह को धोखे से बन्दी बना लिया। अलाउद्दीन ने पद्मिनी को पाने की कीमत पर ही राजा को छोड़ने की शर्त रखी।
पद्मिनी राजपूत खेमा भड़क उठा, पर पद्मिनी के चाचा गोरा और भाई बादल ने गहरा षड्यंत्र रचा। शर्त स्वीकार ली गई कि आपके साथ जाने से पूर्व रानी राजा के दर्शन करेंगी, और सौइयों पालकियाँ सजाकर ख़िलजी के खेमे में पहुंचीं। पर पालकियों में राजपूत वीर बैठ गए और कहार भी सैनिकों को बनाया गया, पद्मिनी की पालकी में बैठा सुन्दर किशोर बादल। जब पालकी जांचने के लिए पर्दा उठाया गया तो बादल को कोई पहचान न सका। थोड़ी ही देर में म्यानों से तलवारें निकल गईं और जो भी शत्रु हाथ में आया, उसे मार डाला। इस अकस्मात आक्रमण से सुल्तान हक्का-बक्का रह गया। उसके सैनिक तितर-बितर हो गये और अपनी जानें बचाने के लिए यहाँ-वहाँ भागने लगे। रतन सिंह छुड़ा लिए गए। पर युद्ध में अद्भुत पराक्रम दिखाते हुए गोरा मारा गया।
पद्मिनी ख़िलजी यह घाव भूला नहीं और कुछ महीनों बाद लाखों की सेना के साथ उसने आक्रमण कर दिया। दुर्ग की घेराबंदी से खाद्य की आपूर्ति रोक दी। आखिर उसके छ:माह से ज़्यादा चले घेरे व युद्ध के कारण क़िले में खाद्य सामग्री अभाव हो गया। तब महाराणा रतन सिंह के नेतृत्व में केसरिया बाना धारण कर हज़ारों राजपूत सैनिक क़िले के द्वार खोल भूखे सिंहों की भांति ख़िलज़ी की लाखों की सेना पर टूट पड़े। भयंकर युद्ध हुआ पर कई गुणी सेना के सामने आखिर छोटी सी सेना कब तक टिकती, महाराणा और किशोर बादल समेत सब मारे गए।
पद्मिनी यह खबर किले में पहुंची तो ख़िलजी की बन्दी बनने की अपेक्षा राजपूती आन बान शान के लिए महारानी ने जौहर का निश्चय किया। जौहर के लिए विशाल चिता का निर्माण किया गया। रानी पद्मिनी के नेतृत्व में हज़ारों राजपूत रमणियाँ जौहर चिता में प्रवेश कर गईं। किले के बच्चे और बूढ़े भी चिता में कूद पड़े। थोड़ी ही देर में देवदुर्लभ रूपसौंदर्य अग्नि की लपटों में दहककर क्षत्रिय कीर्ति का अंगारा बनकर चमक उठा । जौहर की ज्वाला की लपटें देख अलाउद्दीन ख़िलज़ी के होश उड़ गए और धर्मकीर्ति की ध्वजा चतुर्दिक फहर गई। यह कहानी इसी रूप में आजतक मेरी स्मृतियों को झंकृत करती रही है।
पद्मिनी यह संक्षेप में पद्मिनी के बलिदान की कहानी है, जिसे विकृत करने का अधिकार किसी को नहीं है, आज भी चित्तौड़ के दुर्ग से उन रानियों की चीखें सुनाई देती हैं पर अपनी आत्मा बेचने वाले और माँ बहनों की इज्जत बेचने वाले बॉलीवुड को वह चीखें सुनाई नहीं देंगी क्योंकि पैसे की खनक से कान ही नहीं बन्द होते, आत्मसम्मान भी मर जाता है, स्वाभिमान भी सो जाता है। महारानी पद्मिनी को अलाउद्दीन की प्रेमिका बताने वालों का आज विरोध नहीं किया गया तो कल ये माता सीता को रावण के साथ सुखी बताएंगे और राम को आततायी आक्रमणकारी। यह राजपूतों पर नहीं, सारे हिन्दू संस्कृति पर हमला है। फ्रीडम ऑफ़ स्पीच जहाँ मुहम्मद के चित्र बनाने पर दम तोड़ देती है तब उसे आल्टरनेटिव व्यू के नाम पर हिन्दू इतिहास से छेड़छाड़ का कोई हक नहीं रह जाता।
पद्मिनी कुलगौरव के लिए जौहर की ज्वालाओं में जलकर स्वाहा हुईं रानी पद्मिनी की कीर्ति गाथ अमर है और सदियों तक गौरवपूर्ण आत्म बलिदान की प्रेरणा प्रदान करती रहेगी। ऐसे पूर्वजों को हम नमन करते हैं।
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