संस्कृत साहित्य में ग्रन्थ के प्रारम्भ में मंगलाचरण की सुदीर्घ परम्परा है। सभी उपनिषदों का अपना मंगलाचरण है। मंगलाचरण के बिना कोई कार्य प्रारंभ करें तो उसमें विघ्न पड़ने की आशंका रहती है। पुस्तक के ऊपर श्रीगणेशाय नमः लिखना भी मंगलाचरण ही है। परन्तु भाष्यकार भगवान शंकराचार्य के ब्रह्मसूत्र शारीरिक भाष्य से पहले कोई मंगलाचरण नहीं है।
तत्वज्ञान में देवता लोग विघ्न करते हैं, वे सोचते हैं यह हमारे सिर पर पांव रखकर के हमसे ऊपर चला जाएगा। परे हो जाएगा। अतीत हो जाएगा। निस्त्रैगुण्य। तो वो विघ्न डालने लगते हैं। फिर वेदान्त तो तत्वज्ञान का प्रकर्ष !! जब ब्रह्मज्ञान के लिए मनुष्य उद्योग करने लगता है तो देवता लोग विघ्न डालते हैं कि यह हमारा अतिक्रमण करना चाहता है इसे रोको। इन्द्रियों के द्वारा जिन पदार्थों का अनुभव होता है उन पदार्थों में महत्व बुद्धि कर दें तो इन्द्रियों में बैठे देवताओं ने विघ्न डाल दिया। वेदान्त है इन्द्रियों के पीछे बैठे हुए, इन्द्रियों के झरोखे से झांकने वाले, इन्द्रियों को रोशन करने वाले, इन्द्रियाँ जिस चिदाकाश में दिखती हैं उस चिदाकाश का विचार! और इन्द्रियाँ देखती हैं विषयों को। तो बाह्य पदार्थों में महत्व बुद्धि न हो पावे इसलिए मंगलाचरण आवश्यक है। ऐसा ही शिष्टाचार है, ऐसी ही शिष्टाचारमूलित श्रुति है। और भगवान भाष्यकार तो शिष्टों के अग्रणी हैं। वे ये बताने जा रहे हैं कि यह जो प्रत्यकचैतन्य है आत्मतत्व, यह सम्पूर्ण विषयों, सम्पूर्ण इन्द्रियों, सम्पूर्ण देवताओं, सम्पूर्ण वृत्तियों से और इनके द्वारा किए गए सर्व उपद्रवों से नित्य शुद्ध बुद्ध मुक्त स्वभाव है। ये आत्मदेव की निरूपद्रव दृढ़ता का निरूपण करने जा रहे हैं। आत्मदेव में कोई उपद्रव ही नहीं है, निरूपद्रव है आत्मदेव। कोई विघ्न कोई अंतराय कोई प्रत्यवाय नहीं है। इस बात का प्रतिपादन करने जा रहे हैं। यह प्रत्यकचैतन्यभिन्न ब्रह्मतत्व शंकराचार्य भगवान की बुद्धि में जग मग जग मग जग मग चमक रहा है।

लोग मंगलबोधक शब्दों का उच्चारण करते हैं कि वह मंगल है और यहाँ तो स्वयं मंगल होकर, मंगल से घिरकर, मंगल से भरकर, मंगल से सनकर, मंगल से तनकर, मंगल में डूबकर, और बाहर-भीतर-भूत-भविष्य में मंगल से ओतप्रोत होकर स्वयं मंगलमय ब्रह्मदेव की अनुभूति से युक्त होकर के भगवान भाष्यकार ने यह भाष्य प्रारम्भ किया है ‘ब्रह्म तं मंगलं परम्’। इससे बड़ा मंगलाचरण क्या होगा।