मोदी सरकार में मंत्री बने ‘मनसुख मंडाविया‘ को उनकी खराब अंग्रेजी के चलते उनको देश का एक कथित अभिजात्य वर्ग लगातार निशाने बना रहा है।
दरअसल ये समस्या इस पूरे भारतीय उपमहाद्वीप की है जिसका डीएनए गुलामी के लंबे कालखंड में सड़ कर अपनी स्वाभिमान वाली हड्डी मोड़ चुका है।
कुछ साल पहले इंग्लैंड में हो रहे चैम्पियंस ट्राफी के दौरान पाकिस्तानी कप्तान सरफ़राज़ अहमद को उनकी खराब अंग्रेजी के चलते लगातार ट्रोल किया गया था। सरफ़राज़ का उदाहरण अकेला नहीं है क्योंकि अपने देश में भी अंग्रेजी न बोल पाने वाले को हेय दृष्टि से देखा जाता है। अंग्रेजी न जानने वालों का मजाक अगर कोई अंग्रेज उड़ाये तो समझ आता है पर सरफ़राज़ का मजाक वो लोग उड़ा रहें थे जिन्होनें गुलामी के दौर में एक नहीं वरन कई-कई बार अपनी मातृभाषा को छोड़कर आक्रान्ताओं की भाषा अपनाई। सिंध और देवल में जब बिन-कासिम आया था तो इन्हीं बौद्धिक पथ-भ्रष्टों ने उसकी खुशामद करने और जजिया माफ़ करवाने के लिये अपनी भाषी छोड़कर अरबी पढ़ना शुरू किया फिर जब मुग़ल और तुर्क हमलावर हुए तो उनके चरण-चुम्बन करने और उनके दरबार में वाह-वाह करने के लिये फ़ारसी और उर्दू सीख ली फिर अंग्रेज आये तो गधों की तरह अपनी पीठ पर अंग्रेजी का बस्ता लाद लिया। इस बीच इन नीचों को पता ही नहीं चला कि कब उनकी अपनी देवभाषा संस्कृत को “डेड लैंग्वेज” घोषित कर दिया गया।
मान लीजिये कल इंग्लैंड की टीम हमारे यहाँ खेलने आती है तो क्या आप कभी कल्पना भी कर सकतें हैं कि वो हिंदी या आपकी किसी प्रादेशिक भाषा में मीडिया को उत्तर देगा और इन भाषाओं में उत्तर न देने पर उसके अपने देशवासी उसको ट्रोल करेंगें?
गुलामी के कितने लक्षण हममें अभी बाकी हैं ये पूरा मनसुख मंडाविया प्रकरण उसका छोटा उदाहरण मात्र है। ये कौन सी हीन-ग्रंथि है जिसके चलते आप एयरपोर्ट पर हिंदी बोलने में लजातें हैं और अच्छी अंग्रेजी न आते हुए भी जबर्दस्ती सहयात्री को (जो दुर्भाग्य से आपकी ही तरह गुलाम मानसिकता का है) प्रभावित करने के लिये अंग्रेजी पत्रिका या अंग्रेजी अखबार लेकर बैठ जातें हैं ? अगर कोई भारतीय संस्कृति, भारतीय परिधान और भारतीय भाषा के साथ है तो आपके लिये वो अजूबा है पर वही अगर कोई सूट-बूट में है, अच्छी अंग्रेजी बोलता है तो आप कहतें हैं, वाह क्या पढ़ा-लिखा आदमी है और अंग्रेजी तो ऐसी बोलता है कि हमने तो ऐसी अंग्रेजी कभी सुनी ही नहीं।
ये कौन सी मानसिकता है जो सबसे क्लिष्ट और वैज्ञानिक भाषा जानने वाले किसी ब्राह्मण को उपहास की दृष्टि से देखता है लेकिन वही वर्ग has की जगह have लगाते हुए अंग्रेज़ी की टांग तोड़ने वाले को बड़ा ज्ञानी समझता है। मनसुख मंडाविया
अधिक भाषायें जानना इंसान के विकसित मस्तिष्क का सूचक है और चूँकि आज अंग्रेजी एक वैश्विक भाषा के रूप में स्थापित है इसलिये अंग्रेजी जानना भी जरूरी है। इसलिये अंग्रेजी समेत किसी भाषा में बात करना या लिखना बुरा नहीं है, बुरा है उस भाषा का अभिमान लेकर अपनी मातृभाषा का अपमान करना, उनको ट्रोल करना जिन्हें अपनी मातृभाषा के अलावा बाकी भाषाओं का ज्ञान कम है। मनसुख मंडाविया
अंग्रेजी समेत अलग-अलग भाषायें सीखना आज के युग की अनिवार्यता है उसे सीखिए जरूर पर उनमें से किसी को भी अपनी मातृभाषा के ऊपर स्थान मत दीजिये और न ही किसी को उसके चलते लांछित करिये। दुर्भाग्य से ये भाषाई हीनता-बोध भारत में संसद से लेकर सड़क तक है।
फ़िराक गोरखपुरी हिन्दू, उर्दू और अंग्रेजी तीनों ही भाषाओँ पर महारत रखते थे। अंग्रेजी पर तो उनको इतना अधिकार था कि वो अक्सर कहा करते थे कि भारत में तो डेढ़ ही आदमी है जो अंग्रेजी जानता है, एक मैं और आधी नेहरु। आपको पता है आंग्ल भाषा पर इतना अधिकार रखने वाले फ़िराक ने कभी भी अंग्रेजी को अपनी हिंदी के ऊपर महत्ता नहीं दी।
आप जब माँ की गोद में पहली बार आये होंगें तो याद करिये आपकी माँ ने, आपकी नानी और दादी माँ ने, आपके दादा और नाना ने किस जुबान से आपको पहली बार पुकारा था? क्या वो आपसे अंग्रेज़ी में प्यार कर रहे थे? किस जुबान में आपने पहली बार अपनी माँ को पुकारा था? जो जुबान, जो भाषा हमें भगवान ने दी है, जिस भाषा से हमने धरती पर ईश्वर की प्रतिनिधि अपनी माँ को पुकारा था और जिस भाषा में मुझे और आपको बचपन के सारे लाड़-प्यार मिले अगर कोई उस भाषा में बोलने पर शर्मिंदा हो तो उससे अधिक अभागा और बदनसीब इंसान कोई नहीं हो सकता और ऐसे बदनसीबों के झुण्ड जब देश में लाखों-करोड़ों में हो तो फिर सोचना पड़ेगा कि हम किस ओर जा रहें हैं।
अगर यही मानसिकता चलती रही तो आपको मंत्री के रूप में हार्वर्ड रिटर्न बौद्धिक रूप से पतित ही मिलेंगे जो भारत को इंडिया समझते हैं और मनसुख मंडाविया जैसे देशी -देहाती नेता हीनताबोध का शिकार होकर पीछे हट जाएंगे।
भारतेन्दु बहुत पहले कह गये थे,
निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल….
~ अभिजीत सिंह