◆संवत् २०७८ है राक्षस संवत्सर◆
◆लुप्तसंवत्सर में विवाद क्यों ?◆
— आचार्य श्री विनय झा,
त्रिस्कन्ध ज्योतिर्विद्, सूर्यसिद्धान्तीय गणितज्ञ
संरक्षक, अखिल भारतीय विद्वत्परिषद, वाराणसी
गणितज्ञ, आदित्य पञ्चाङ्ग (काशी), श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चाङ्ग (जयपुर) आदि
आदित्य पञ्चाङ्ग के सम्पादक डा⋅ पारसनाथ ओझा तथा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विश्वपञ्चाङ्गं के पूर्व गणितकर्ता−सह−सम्पादक डा⋅ कामेश्वर उपाध्याय से मैंने अपना मत कहा था कि बृहस्पति के संवत्सरों की गणना स्पष्ट बृहस्पति द्वारा होनी चाहिये जबकि कई लोग मध्यम बृहस्पति द्वारा ही गणना करते हैं क्योंकि उसमें समय बचता है । दासता के मुस्लिम युग में यह सरल और गलत विधि प्रचलित हुई ।
Advance Ephemeris की भूमिका के पृष्ठ ११ में नीचे निर्मलचन्द्र लाहिड़ी जी ने लिखा था कि पहले मध्यम बृहस्पति द्वारा कुम्भ की गणना होती थी,अब स्पष्ट बृहस्पति द्वारा होती है । सूर्यसिद्धान्त तथा अन्य सिद्धान्तों के मध्यमाधिकार में संवत्सरों की सूची है जिस कारण ऐसा गलत निर्णय हो सका । संवत्सरों की सूची केवल मध्यमाधिकार में ही दी जा सकती है,स्पष्टाधिकार में देना चाहें तो सम्पूर्ण सृष्टि के सभी संवत्सरों की विशाल सूची देनी पड़ेगी जो अनावश्यक है ।
निर्मलचन्द्र लाहिड़ी जी की उपरोक्त पुस्तक में ही पृष्ठ ९९ में कलियुगारम्भ की गणना मध्यम गणित द्वारा दी गयी है जो अनुचित है । ऐसा ही तर्क अमरीका में रहने वाले नरसिंह राव ने दिया था कि मध्यमाधिकार में युगों की गणना है जिस कारण कलियुग आदि का आरम्भ मध्यम सूर्य द्वारा ही होनी चाहिये । मैंने पूछा कि अभी जो वर्ष चल रहा है उसमें मेषारम्भ वाले वा चैत्र शुक्लादि वाले वर्ष में आप मध्यम सूर्य लेते हैं वा स्पष्ट । तो उत्तर है “स्पष्ट” । तो फिर कलियुग जब आरम्भ हुआ उस वर्ष का आरम्भ मध्यम से कैसे हुआ?सम्पूर्ण सृष्टि में युगों की गणना की विधि केवल मध्यमाधिकार में ही दी जा सकती है,स्पष्टाधिकार में देंगे तो चार सहस्र युगों की स्पष्ट गणना वाली सम्पूर्ण सूची देनी पड़ेगी जो अनावश्यक है । अतः मध्यमाधिकार में वर्णित विधि द्वारा ग्रहों की मध्यम गणना पहले की जाती है और फिर स्पष्टाधिकार की विधि के अनुसार उसे स्पष्ट करते हैं । मध्यमग्रह का अर्थ हुआ दीर्घकालीन औसत गति द्वारा गणना,अर्थात् पूर्ण गोल कक्षा मानकर । स्पष्टग्रह का अर्थ है वास्तविक ग्रह की स्थिति । कुम्भ का निर्णय मध्यम बृहस्पति द्वारा किया जाय तो इसका अर्थ हुआ कि वास्तविक बृहस्पति से आपको कोई लेना देना नहीं । तब कुम्भ स्नान का फल आपको वास्तविक ग्रह कैसे देंगे?
कुण्डली सॉफ्टवेयर के जिस पृथ्वीचक्र में संवत्सर का बटन है उसमें केवल मेषप्रवेश के दिन की गणना है । केवल एक दिन की गणना द्वारा केवल सामान्य संवत्सरों का ज्ञान होता है,लुप्त संवत्सर तथा बृहस्पति का अतिचार देखने के लिये पूरे वर्ष का गणित देखना आवश्यक है जो बना−बनाया कुण्डली सॉफ्टवेयर में नहीं है । उसके लिये पञ्चाङ्ग का सॉफ्टवेयर अथवा प्रकाशित पञ्चाङ्ग चाहिये ।
कुछ पञ्चाङ्गकार कहते हैं कि लुप्त संवत्सर होते ही नहीं । ऐसा कहने वाले को किसी भारतीय सिद्धान्त−ज्योतिष का ज्ञान नहीं है,डिग्री आधुनिक भौतिकी से लिये किन्तु उसका भी ग्रहगणित नहीं जानते,पञ्चाङ्ग के पाँच अङ्ग बनाते हैं सूर्यसिद्धान्तीय मकरन्द की स्थूल सारिणियों द्वारा,ग्रहस्पष्ट बनाते हैं ग्रहलाघव द्वारा (जो अनेक सिद्धान्तों की खिचड़ी है तथा भारतीय सिद्धान्त−ज्योतिष का खुलकर विरोध करने वाला पहला ग्रन्थ है),अयनांश बनाते हैं केतकी से जो आधुनिक दृक्पक्ष पर आधारित है,और काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के विश्वपञ्चाङ्गं को नीचा दिखाने के लिये झूठ फैलाते हैं कि लुप्त−संवत्सर होता ही नहीं है ।
किसी भी प्रकरण में मध्यमग्रह को नहीं लेना चाहिये । निर्मलचन्द्र लाहिड़ी की उपरोक्त पुस्तक में ही लिखा है कि दक्षिण भारत में लुप्त संवत्सर उसे कहते हैं जब एक ही वर्ष में दो बार्हस्पत्य संवत्सरों का अन्त हो ।
स्पष्ट बृहस्पति जब अग्रिम राशि में जाये किन्तु उसका कुछ ही अंश भोगकर वक्री होकर पिछली राशि में कुछ काल के लिये लौटे तथा पुनः मार्गी बनकर अगली राशि में जाये तो उस अगली राशि का पहली बार जो आंशिक भोग हुआ उसे अतिचार कहते हैं जिसमें शुभकर्म वर्जित हैं ।
इसके विपरीत स्पष्ट बृहस्पति जब पृथ्वी से निकटता के कारण तीव्रगति से चलें तो दीर्घकाल में कभी−कभी लुप्त संवत्सर आता है । उदाहरणार्थ, वर्ष के आरम्भ में बृहस्पति मकर में हैं किन्तु कुछ ही दिनों के पश्चात कुम्भ में जायें और अगला वर्ष आरम्भ होने से कुछ पहले ही कुम्भ से निकलकर मीन में चले जायें तो कुम्भ वाले संवत्सर का लोप होता है ।
अतः लुप्त संवत्सर की परिभाषा केवल बृहस्पति पर निर्भर नहीं करती,वर्ष के आरम्भ और अन्त का गणित सूर्य तथा चन्द्रमा की गति द्वारा निर्धारित तिथि से बनता है जिसकी तुलना में लुप्त संवत्सर की गणना होती है । लुप्त संवत्सर को जानने के लिये सूर्य तथा चन्द्रमा की गणना हर कोई स्पष्ट गति के आधार पर करता है किन्तु कुछ लोग पञ्चाङ्ग में स्पष्ट बृहस्पति दिखाते हैं परन्तु संवत्सरों की गणना मध्यम गणित द्वारा करते हैं जो गलत है । सूर्य−चन्द्र स्पष्ट लेंगे तो बृहस्पति मध्यम क्यों?वैसे भी मध्यमग्रह दीर्घकालीन औसत गति पर आधारित गोल कक्षा है जिसमें कोई ग्रह नहीं घूमता । ग्रह की वास्तविक स्थित को स्पष्टग्रह कहते हैं । काशी का हृषीकेश पञ्चाङ्ग लुप्त−संवत्सर को मानता ही नहीं,और विश्व पञ्चाङ्ग मध्यम बृहस्पति द्वारा संवत्सरों की गणना करता है किन्तु लुप्त संवत्सर को मानता है । विश्व पञ्चाङ्ग सूर्यसिद्धान्त को मानता है किन्तु बर्जेश की सारणियों से गणना करता है ।
लुप्त संवत्सर का विषय ज्योतिष के संहिता स्कन्ध के अन्तर्गत है,गणित स्कन्ध में नहीं । लुप्त संवत्सर पर डा⋅ कामेश्वर उपाध्याय तथा डा⋅ पारसनाथ ओझा के मत सही हैं । डा⋅ पारसनाथ ओझा मेरे ही पञ्चाङ्ग सॉफ्टवेयर द्वारा आदित्य पञ्चाङ्ग प्रकाशित करते हैं और संवत्सर की गणना में स्पष्ट बृहस्पति का प्रयोग करते हैं जो सही है । डा⋅ कामेश्वर उपाध्याय विश्व पञ्चाङ्ग के पूर्व सम्पादक हैं । वर्तमान विवाद के समाधान हेतु पूरे वर्ष का पञ्चाङ्ग देखें,न कि केवल वर्षारम्भ का । पूरे चार वर्षों का स्पष्टसूर्य तथा स्पष्ट−बृहस्पति की सारिणी संलग्न है जो कुण्डली सॉफ्टवेयर द्वारा बनी है ।
लुप्त−संवत्सर लगभग ८५.७६ वर्षों में एक बार आता है । लुप्त−संवत्सर के लिये पूरे वर्ष का पञ्चाङ्ग देखना पड़ता है । कुण्डली सॉफ्टवेयर के पृथ्वीचक्र में सूर्यसिद्धान्तानुसार संवत्सरों की गणना वर्ष के आरम्भ काल हेतु दी गयी है ।
सूर्यसिद्धान्त वा किसी भी सिद्धान्त ग्रन्थ में लुप्त−संवत्सर का उल्लेख नहीं है अतः कुण्डली सॉफ्टवेयर में लुप्त संवत्सर की गणना नहीं है । लुप्त संवत्सर “संहिता” स्कन्ध के अन्तर्गत है । भारत के अधिकांश परम्परावादी ज्योतिषी लुप्त संवत्सर को मानते हैं,अतः संवत् २०७८ राक्षस संवत्सर ही मान्य है ।

सूर्यसिद्धान्तानुसार २२ वाँ संवत्सर पूरा (गत) हो चुका है और उसके बाद वाले (राक्षस) का ११:५:५६⋅६ गत है एवं ०:२४:३:५४ भोग्य है,जिसका अर्थ यह है कि ११वीं राशि कुम्भ का ५:५६⋅६ गत है और शून्य राशि एवं २४:३:५४ भोग्य है । गत और भोग्य को जोड़कर एक राशि में कुल ३० अंश हुए । यह मेरुपर्वत से सूर्यसिद्धान्तीय गणना है । काशी से गणना करेंगे तो कुछ अन्तर आयगा परन्तु राशि अर्थात् संवत्सर वही रहेगा ।
“गत गुरु संवत्सर” के आगे मकरन्दीय मान भी लिखा है कि ४८ वाँ संवत्सर आनन्द गत है । मकरन्दीय संवत्सर सूची भी सूर्यसिद्धान्तीय ही है किन्तु ६० संवत्सरों की सूची सूर्यसिद्धान्त में “विजय” से आरम्भ है जिसमें २२वाँ आनन्द तथा २३वाँ राक्षस संवत्सर है,जबकि मकरन्दीय सूची “प्रभव” से आरम्भ है जिसमें ४८वाँ आनन्द और ४९वाँ राक्षस है । कुम्भ राशि में बृहस्पति हो तो राक्षस संवत्सर होता है जिस कारण इस बार कुम्भ का आयोजन हुआ । सामान्यतः १२ वर्षों पर कुम्भ का आयोजन होता है किन्तु इस बार आनन्द का लोप होने के कारण ११ वर्ष पर ही कुम्भ का निर्णय हुआ ।
परन्तु “काशी विद्वत् परिषद” में कुछ ऐसे लोग हैं जिनको सच्चाई तो पता है परन्तु जानबूझकर गलत बयान देकर भ्रम फैला रहे हैं । “काशी विद्वत् परिषद” की कोई बैठक नहीं हुई,हृषीकेश पञ्चाङ्ग के सिखाने पर कुछ लोगों ने टेलीफोन पर निर्णय लेकर भ्रम फैलाया । ये लोग इस वर्ष के कुम्भ को गलत सिद्ध करना चाहते हैं किन्तु इनलोगों की बात किसी ने नहीं सुनी,सही समय पर ही कुम्भ का निर्णय लिया गया । इस विवाद का मूल है हृषीकेश पञ्चाङ्ग जिसने इस बार आनन्द प्रकाशित कर दिया और उसके पक्ष में “काशी विद्वत् परिषद” के नाम पर कुछ लोग आ गये जिनमें प्रमुख हैं डा⋅ रामचन्द्र पाण्डेय और उनके शिष्य डा⋅ विनय पाण्डेय जो क्रमशः BHU ज्योतिषविभाग के भूतपूर्व और वर्तमान अध्यक्ष हैं । BHU के विश्वपञ्चाङ्गं ने भी उनकी नहीं सुनी और इस बार राक्षस संवत्सर ही माना । डॉ⋅ रामचन्द्र पाण्डेय ने सूर्यसिद्धान्त की हिन्दी टीका प्रकाशित की है जिसके अनुसार इस बार राक्षस संवत्सर ही है । हृषीकेश पञ्चाङ्ग से जो भूल हो गयी उसपर पर्दा डालने के लिये हृषीकेश पञ्चाङ्ग हाथ−पाँव मार रहा है जिसमें वे लोग किसी गुप्त कारण से सहयोग कर रहे हैं जिनकी बात उनके घर में भी नहीं सुनी जाती,वरना पहले BHU के विश्वपञ्चाङ्गं में राक्षस हटाकर आनन्द डलवाते!सूर्यसिद्धान्त हो या आधुनिक दृक्सिद्धान्त,मैंने भारत से लेकर यूरोप तक का वर्षप्रवेश बनाकर जाँचा है,किसी भी पद्धति से आनन्द नहीं आता,राक्षस संवत्सर ही आता है । आनन्द का लोप हो गया जिस कारण पूरे देश और विश्व के आनन्द,विहार,सिनेमा,पर्यटन आदि का लोप हो गया और अब राक्षस का ताण्डव बृहस्पति के कुम्भ में प्रवेश से ही आरम्भ हो गया ।
राजस्थान का एकमात्र सूर्यसिद्धान्तीय श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चाङ्ग प्रकाशित
‘श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पंचांग’ केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में विमोचित
केन्द्रीय संस्कृत विश्वविद्यालय, जयपुर में पंचांग सम्पादन कार्यशाला आयोजित