दिल्ली. लम्बे समय से अपने नियमितीकरण की मांग कर रहे राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के अस्थाई व्याख्याता गुरुवार को जंतर मंतर पर धरना देने को एकजुट हुए। और सरकार के सामने अपनी मांगें रखीं। मानव संसाधन विकास मंत्रालय के अधीन देश में दस से अधिक परिसरों वाले संस्कृत के सबसे बड़े विश्वविद्यालय, राष्ट्रीय संस्कृत संस्थान के सैकड़ों शिक्षक अनेक वर्षों की सेवाएं देने के बाद भी आज तक टेम्परेरी पदों पर नियुक्त हैं। इसमें से कई व्याख्याता दस से भी अधिक वर्षों की सेवाएं दे चुके हैं। फिर भी आज तक उन्हें प्रत्येक वर्ष वापस होने वाली चयनप्रक्रिया से गुजरकर अपमान का सामना करना पड़ रहा है।

संस्कृत शिक्षा के क्षेत्र में सबसे बड़े विश्वविद्यालय में ज्योतिष से लेकर धर्मशास्त्र के प्राचीन विषय और अंग्रेजी से लेकर कम्प्यूटर तक के मॉडर्न विषय, सभी में अस्थाई व्याख्याता नियुक्त हैं। व कार्य का पूर्ण बोझ ढोते हुए भी उन्हें स्थायी व्याख्याताओं की तुलना में बेहद कम वेतन दिया जा रहा है। साथ ही हर वर्ष उनकी नौकरी पर तलवार लटकी रहती है। इन व्याख्याताओं को न तो समान छुट्टियों की सुविधा है न ही इन्हें यथायोग्य वेतन व सम्मान मिल रहा है।

जन्तर मन्तर पर धरने को संबोधित करते एक अस्थाई व्याख्याता

संस्कृत संस्थानों के अस्थाई व्याख्याताओं में भी एक समान कार्य के उपरांत भी संविदा और गेस्ट, दो श्रेणियां बनाई गईं हैं और उनमें भी वेतन को लेकर भेदभाव किया गया है। इस नीति को संस्थान के कोई भी वरिष्ठ अधिकारी समझाने में असफल हुए। इन सब विसंगतियों के बीच नियमितीकरण और समानीकरण की मांगों को लेकर संस्कृत व्याख्याताओं ने “संयुक्त शिक्षक संघ” का गठन किया और अपनी मांगें संस्थान के कुलपति, प्रबंधन समिति से लेकर मानव संसाधन विकास मंत्रालय तक पहुंचाई, परन्तु कई महीनों की वार्ताओं के बावजूद भी कोई समाधान नहीं निकला। 

तब संयुक्त शिक्षक संघ के बैनर तले इन व्याख्याताओं ने देशभर के सांसदों, विधायकों, संस्कृत विद्वानों, राष्ट्रपति पुरस्कार प्राप्त विद्वानों द्वारा समर्थन पत्र प्राप्त करने का अभियान चलाया। HRD मंत्री प्रकाश जावड़ेकर, केंद्रीय मंत्री स्मृति ईरानी, गृहमंत्री राजनाथ सिंह आदि से मुलाकात कीं, पर अपेक्षित नतीजा प्राप्त नहीं हुआ। ऐसे में सरकार द्वारा कुछ न होते देख इन संस्कृत शिक्षकों को अपने परिवार छोड़कर, व वेतनरहित छुट्टियां लेकर दिल्ली के जंतर मंतर पर धरना देने आना पड़ा है। कोई अगरतला से तो कोई केरल के श्रृंगेरी से पहुंचा है, कोई अपने छोटे बच्चों को अकेला छोड़कर पहुंचा है। संस्कृत संस्थानों के अस्थाई व्याख्याताओं की ये हुंकार मीडिया चैनलों पर भी सुनाई पड़ी। 


अस्थाई व्याख्याताओं की हुंकार के बाद सरकार के कान भी खड़े हो गए। और आनन फानन में राज्यसभा सांसद और संघ विचारक डॉ. आर. के. सिन्हा धरना स्थल पर पहुंचे। जहाँ उन्होंने संस्कृत के गुण गाये और संस्कृत के लिए काम न होने के आरोप लगाए। पर साढ़े चार साल में केंद्र सरकार ने संस्कृत के लिए क्या किया इसपर वो भी कुछ नहीं बोले। संस्कृत संस्थान के अस्थाई व्याख्याताओं को उन्होंने आश्वासन दिया कि शीघ्र ही वे राज्यसभा में यह विषय उठाएंगे और सरकार से मांगें पूरी करवाएंगे, पर देखना यह है कि इन आश्वासनों का क्या होता है। क्योंकि आम चुनाव की आचार सहिंता लगने में अब कुल जमा 3 महीने भी नहीं बचे हैं।

केंद्र में मोदी सरकार बनने के बाद संस्कृत संस्थानों में एक आशा की किरण देखी गई थी। समझा गया था कि सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के मुद्दे पर चुनाव लड़ने वाली पार्टी के सरकार में आने के बाद संस्कृत की सुध ली जाएगी। पर संस्कृत संस्थाओं के कर्मचारियों की मानें तो उन्हें निराशा ही हाथ लगी है। संस्कृत के अन्य विश्वविद्यालयों जैसे वाराणसी के सम्पूर्णानंद संस्कृत विश्वविद्यालय का भी कमोबेश यही हाल है। संस्कृत के कुछ विद्वानों की मानें तो उन्हें और भी करारा झटका तब लगा जब प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने तमिल को संस्कृत से प्राचीन भाषा बता दिया था। हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ व शोध अध्ययन हमेशा संस्कृत को सबसे प्राचीन भाषा बताते रहे हैं। यही नहीं, संस्कृत संस्थान फंड ही कमी से भी गुजर रहा है। अब देखना यह है कि क्या सांस्कृतिक राष्ट्रवादी केंद्र सरकार संस्कृत को अच्छे दिन दे पाएगी। या एक बार फिर संस्कृत जगत अपने आपको किसी कोने में अकेला खड़ा ही पाएगा। 

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