संत रविदास निम्न लेख प्रतिज्ञ @RamaInExile द्वारा लिखित है। संत रविदास
चुकी यह भक्ति ग्रंथ है इसीलिए यहां हर वृतांत को भगवान की ही इच्छा बताई गई है! और सही भी है क्योंकि सब कुछ अंतत: भगवान् की ही इच्छा से होता है। लेकिन इसको दैवीय अनुकंपा मान कर तत्कालीन परिस्थितियों को अपवाद की श्रेणी में रख देना घोर मूर्खता होगी, क्योंकि फिर तो इस्लामिक आतंकवाद भी प्रभु की ही इच्छा है, उनकी की शक्तियों द्वारा प्रदत्त है तो क्यों न हम इसको भी एक अपवाद मान कर मूल समस्या से पलायन कर जाए!?
अत: निश्चित रूप से ये वृतांत तत्कालीन जातिवादी, शुक्रगत अहंकार, अतिवाद, जघन्य रूढ़िवादिता का परिचायक है। आगे टीका में वर्णन है :
जन कों बुलाय समझाय न्याय प्रभु सौंपि दीनों जग जस साधुलीला मनुहारी है।।
अर्थात् श्री रैदास जी अनन्य प्रेम और रसामृत से भगवान की घर में सेवा करते थे तभी भगवान की प्रेणना से ब्राह्मणों ने उनके विरुद्ध आंदोलन खड़ा किया। ब्राह्मणों ने राजा के भरे दरबार में संत शिरोमणि रविदास को गालियां दी और उनपर आरोप लगाया कि शूद्र होकर ये मूर्ति पूजन करता है!
ब्राह्मणों के शिकायत पर राजा ने संत रविदास को बुलाया और भरी सभा में उनके अनन्य भक्ति का चमत्कार देख उनके साथ न्याय किया। इसके बाद जन्मना शूद्र रविदास जी को ठाकुर जी की सेवा का अधिकार दे दिया गया और पूरे जग में उनका यश फैल गया।
संत रविदास
अर्थात् चित्तौड़ की रानी “झाली” ने किसी गुरु से मंत्र दीक्षा नही ली थी (भगवान के नाम से उसके कान नही पावित्र हुए थे) इसलिए वह काशी आ कर संत रविदास जी की शिष्या हो गई थी। यह देखकर रानी के साथ रहने वाले ब्राह्मणों में ईर्ष्या और घृणा की भावना जाग उठी और वे सब के सब राजा के पास गए इसका निर्णय करने के लिए की रैदास को दीक्षा देने का अधिकार है या नहीं!!
तब राजा ने भगवान की मूर्ति को एक सिंहासन में विराजमान कर दिया और कह दिया जिसके बुलाने से भगवान आ जायेंगे वही दीक्षा का अधिकारी होगा! फिर ब्राह्मणों ने ऊंचे ऊंचे स्वरों में वेद पाठ किया पर भगवान टस से मस नहीं हुए।
इसके बाद श्री भक्त रविदास जी ने अपना एक पद गाया ”आयो आयो हो देवाधिदेव तुव सरन आयो..” और पद के समाप्ति पर भगवान स्वयं संत रविदास जी के गोद में विराजमान हो गए! कहा जाता है कुछ इस प्रकार प्रभु ने जातिवादियों के थोथले पांडित्य की अवज्ञा कर भक्त की लाज रख ली!
कुछ समय पश्चात रानी काशी से लौटकर जब अपनी राजधानी चित्तौड़ पहुंची तब उन्होंने संत रविदास जी को चित्तौड़ से यह कहकर बुलावा भेजा कि जिसप्रकार अपने काशी में प्रतिपालना की थी उसी प्रकार यहां पधार कर भी कीजिए। रानी के आमंत्रण पर श्री संत रविदास जी चित्तौड़ पधारे। वहाँ रानी ने उनका बहुत आदर किया और बहुत भेट भी दिया। इसी अवसर पर रानी ने सभी साधु संतो के लिए एक विशाल भंडारे का भी आयोजन किया ।
आयोजन में ब्राह्मणदेव भी आए, किंतु जन्मना छुआछूत प्रतिस्थापक ब्राह्मणों ने भंडारे में पका अन्न खाने में आपत्ति की, इसलिए रानी ने उनके लिए कच्चा समान का प्रबंध कर दिया, तत्पश्चात् ब्राह्मणों अपने हाथ से रसोई बनाई लेकिन जब वो खाने के लिए पंक्तिबद्ध होते है तब जो देखते हैं की हर दो ब्राह्मण के बीच एक संत रविदास जी बैठे हैं।
संत रविदास जी का प्रभाव देख कर उनकी आंखे खुली और वो अत्यंत दीन हीन अवस्था में संत रविदास जी से क्षमा याचना मांगने लगें!! तब संत रविदास जी ने अपनी त्वचा को चीर कर स्वर्ण यज्ञोपवीत दिखाया ताकि उन्हें विश्वास हो जाय की वो पूर्व जन्म में ब्राह्मण थे।
अंतिम प्रसंग से एक चीज और इंगित होती है की सामाजिक प्रतिष्ठा हेतु आपको किसी न किसी रूप में ब्राह्मणोचित विषयवस्तु दिखानी पड़ती है ,तब जाकर आपको स्वीकृति मिलती है। उपरोक्त सभी प्रसंगों से तत्कालीन समाज का आकलन सुगमता से किया जा सकता है, जो मध्यकालीन कुरीतियां समावेशित किए हुए था, न केवल समावेशित अपितु शास्त्राधार प्रदान किए हुए था जिससे पूरा समाज पंगु हो गया।
उन्ही तथाकथित शास्त्रधारित चीजों को परंपरा का नाम दे कर ट्रैडवाद के द्वारा प्रसारित किया जा रहा है। ये शुक्रगत जातिवादी अहंकारी उस समय भी थे और आज भी है। हिंदू समाज के कुछ विशेष वर्गों द्वारा ऐसे संतो की उपेक्षा का ही कारण है की आज इनको मानने वाले समुदाय स्वयं हिन्दू नही कहते उद ० रविदासिया वर्ग।
यहां तक की अवस्था ये हो गई है की कुछ लोग इनके माथे का वैष्णव प्रतीक इत्यादि हटा कर इनको सिक्खों का गुरु बताते हैं, और तो और अम्बेडकर वादी हिंदू विरोधी लोग आज वैष्णवाचार्य संत रविदास जी को हिंदू विरोधी बहुजन नायक के रूप में प्रतिष्ठित कर चुके हैं!
हमारे संतो का दिन प्रति दिन बहुजन नायक,खालसा, लिबरल, मार्क्सिस्ट इत्यादि हिंदु विरोधी रूप में विनियौगिक समायोजन होता जा रहा है और इधर ट्रैडवादी, जाति, वर्ण, अधिकार में ही फंसे हुए हैं, और अपनों की ही उपेक्षा किए जा रहे हैं, और इनके फूले हुए अहंकार के पेट अभी भी तृप्त नहीं हो रहे!!
उस समय इन ट्रैडवादयों ने संत रविदास का विरोध किया और आज उनको छद्म तरीके से अपने स्वघोषित शास्त्रगम्यपरिभाषानुकूल ढांचे में फिट कर सत्य पर आवरण डालते हैं। ऐसे सभी अहंकारियों से हाथ जोड़ निवेदन है की “जन्मना शूद्र मंदिर में न घुसे”, “जन्मना शूद्र अलना फलाना धेमका न करे”, “अलाना फलाना पर उनका अधिकार नहीं है”, ”जन्मना शूद्र की रोटी मत खाओ”, “जन्मना शूद्र को नमस्कार नही करना चाहिए” …
ऐसी व्यर्थ की अशास्त्रीय, अवैज्ञानिक बातों को अस्वीकार कर अपने अहंकार की तिलांजलि दें!! और वर्णाश्रमाभिमान त्याग कर श्री संत रविदास चरण कमल की वंदना करे जैसा की लोग करते थे!
पद रज बन्दहि जास की,
संदेह ग्रन्थि खण्डन निपुन,
वानी विमल रैदास की।
— भक्तमाल (मूल छप्पय-५६)
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