लेखक:- पण्डित गङ्गाधर पाठक ‘वेदाद्याचार्य’
(मुख्याचार्य- श्रीरामजन्मभूमिशिलापूजन, अयोध्या)

साङ्गोपाङ्गाय वेदाय ज्योतिषां ज्योतिषे नमः ।
सूर्याय सूर्यसिद्धान्तज्योतिर्विद्भ्यो नमो नमः ।।
व्रतोत्सवादि सम्पादनार्थ एवं यज्ञोपनयनादि धार्मिककृत्यों के लिये सम्यक् कालपरिज्ञानार्थ तिथि-वार-नक्षत्र-योग-करणात्मक विशुद्ध आर्षपञ्चाङ्ग की आवश्यकता होती है। परन्तु विविध भारतीय पञ्चाङ्गों में भी व्रतोपवासादि के वैमत्य से प्रायः सर्वत्र कोलाहलश्रवण होता रहता है, एतदर्थ किञ्चिच्चिन्तन अपेक्षित है। सूर्यसिद्धान्तीय पञ्चाङ्ग
सम्प्रति कई प्रकार के पञ्चाङ्ग उपलब्ध होते हैं– सूर्यसिद्धान्तपक्षीय, आर्यसिद्धान्तपक्षीय (वाक्यविधि), ब्राह्मसिद्धान्तपक्षीय, दृग्गणितपक्षीय आदि। मकरन्द-ग्रहलाघवादि के भेद से सूर्यसिद्धान्तीय पञ्चाङ्ग का भी वैविध्य है तथा चित्रा-रैवतादिपक्षीय गणित के भेद से दृक्पञ्चाङ्ग भी कई प्रकार के हैं। कोई सूर्य-चन्द्रान्तरलक्षण से तथा कोई कलालक्षणभेद से तिथियों का द्वैविध्य वर्णन करते हैं।
भारत में ही कुछ पञ्चाङ्ग चैत्रशुक्लप्रतिपत् से, कुछ आषाढ़शुक्लप्रतिपत् से, कुछ श्रावणकृष्णप्रतिपत् से और कुछ कार्तिकशुक्लप्रतिपत् से प्रारम्भ किये जाते हैं। कोई विक्रमसंवत्, कोई शकसंवत् तथा कोई अन्य स्थानीय लौकिकसंवत् का उपयोग करते हैं। कहीं पूर्णिमान्त तो कहीं अमान्तमास ग्रहण किये जाते हैं। सम्प्रदायभेदवाले पञ्चाङ्गों की तो इयत्ता ही नहीं है। परिणामत: भारत के सार्वभौम व्रतोत्सवादि भी दो या तीन विभिन्न दिनों में सम्पादित होते हैं तथा कुछ कृत्य तो पूर्णिमान्त-अमान्तमास के भेद से पक्ष-मासपर्यन्त भी आगे- पीछे हो जाते हैं।
वर्त्तमान में आर्षज्ञानविहीन नवीनों के द्वारा दृक्पञचाङ्ग के रूप में एक बड़ी समस्या खड़ी कर दी गई है, जो नाविकपञ्चाङ्ग (Nautical Almanac) पर आधारित है, जहाँ ग्रहण जैसी घटनायें मांसचक्षुर्दृष्ट ही मान्य हैं।
शास्त्रनिष्ठ प्रामाणिक सनातनियों के लिये तो दृक्पञ्चाङ्ग सर्वथा अग्राह्य है। प्रत्येक धार्मिककृत्य के संकल्प में कल्प मन्वन्तर आदि का स्मरण करने के लिये प्राचीन आर्षसिद्धान्तपक्षीय पञ्चाङ्गों की ही उपयोगिता सिद्ध होती है।
दृग्गणितके पक्षपाती विद्वान् तिथ्यादिनिर्णय में इस पद्धति की उपयोगिता सिद्ध करते हैं-
यस्मिन्पक्षे यत्र काले येन दृग्गणितैक्यम् ।
दृश्यते तेन पक्षेण कुर्यात्तिथ्यादिनिर्णयम् ॥
परन्तु महान् दैवज्ञ ब्रह्मगुप्त तो पैर से भी दृग्गणितके पादमात्र का स्पर्श नहीं करना चाहते-
प्रतिदिवसविसंवादात्तिथिकरणर्क्षदिवसमासानाम् । ग्रहणग्रहयोगादिषु पादं पादेन कः स्पृशेत् ॥
ग्रहलाघवकार ने भी “सौरार्कोऽपि..” में इसपर विचार किया है।
स्थूल दृग्गणित का भी जनक भारतीय ज्योतिषशास्त्र ही है। मल्लारि एवं सूर्यसिद्धान्तादि ने भी किञ्चित् कार्यभेद से दृक्पक्ष को ग्रहण किया है। भास्कराचार्य ने-
यात्राविवाहोत्सवजातकादौ खेटै: स्फुटैरेव फलस्फुटत्वम् ।
स्यात्प्रोच्यते तेन नभश्चराणां स्फुटक्रिया दृग्गणितैककृद्या ॥
यद्यपि कतिपयमतेन सूर्यसिद्धान्त का बीजोपनयनाध्याय सूर्यांशोक्तापेक्षया प्रक्षिप्त है, तथापि मयरचित सूर्यसिद्धान्त में इसे अप्रक्षिप्त और यात्रादि में प्रशस्त माना गया है-
कालेन दृक्समो यः स्यात्ततो बीजक्रियोच्यते ।
बीजं विशेषसिद्धान्तरहस्यं परमं स्फुटम् ।
यात्रापाणिग्रहादीनां कार्याणां शुभसिद्धिदम् ॥
वराहमिहिर ने भी बीजसंस्कार को ग्रहण किया है-
पूर्वाचार्यमतेभ्यो यद्यच्छ्रेष्ठं लघु स्फुटं बीजम् ।
तत्तदिहाविकलमहरहरस्म्यभ्युद्यतो वक्तुम् ॥
मकरन्दानुसारि पञ्चाङ्गों में भी बीजसंस्कार किया जाता है, जिसपर विचारकों ने नित्य-नैमित्तिक-काम्यकर्मों में तत्तत् सिद्धान्तों के ग्रहण की चर्चा की है । इसका स्पष्टीकरण करते हुए महामहोपाध्याय श्रीसुधाकर द्विवेदी ने ब्रह्मगुप्त के तन्त्रभ्रंश की व्याख्या में कहा है कि जिस तन्त्र में दृग्गणित इष्ट है, वहीं वह आदरणीय है-
“यात्राविवाहोत्सवजातकादौ खेटैः स्फुटैरेव फलस्फुटत्वम्”
इति विषयविषयेण वाक्येन दृग्गणितैक्यकृत्स्फुटक्रिया
यात्राविवाहोत्सरवविशेषविषयेष्वेव ग्राह्या, न तु धर्मशास्त्रोपयोगितिथ्यानयने ।
अर्थात् कदाचित् यात्रा – विवाहोत्सव आदि में ही दृग्गणित की ग्राह्यता हो सकती है, धर्मशास्त्रोपयोगी तिथ्यानयन में नहीं। इस विवेचन से सर्वविध धर्मकृत्यों में दृग्गणित की ग्राह्यता निरस्त हो गई।
सिद्धान्ततत्त्वविवेककार ने भी अदृष्टफलसिद्धयर्थ सूर्योक्तप्रमाण की ही श्रुतिवद् ग्राह्यता सिद्ध की है-
अदृष्टफलसिद्धयर्थं निर्बीजार्कोक्तमेव हि ।
प्रमाणं श्रुतिवद्ग्राह्यं कर्मानुष्ठानतत्परैः ॥
शाकल्य संहिता में भी “दृक् सिद्धा नेष्यते तिथि:” से यही कहा है।
कालनिर्णय में भी “तिथिनक्षत्रयोगानयनेऽबीजसंस्कृतो ग्राह्यः” से यही बात कही है ।
भास्कराचार्यादि ने दृग्गणित को स्थूल और पुलस्त्य-वसिष्ठ-गर्गादि मुनिप्रणीत गणित को सूक्ष्म कहा है-
स्थूलं कृतं भानयनं यदेतज्ज्योतिर्विदां संव्यवहारहेतोः ।
सूक्ष्मं प्रवक्ष्येऽथ मुनिप्रणीतं विवाहयात्रादिफलप्रसिद्धयै ॥
वासनाकार ने भी यही पक्ष ग्रहण किया है-
स्थूलं लोकव्यवहारमात्रम्, यात्राविवाहादावपि सम्यक्फलसिद्ध्यर्थं मुनिप्रणीतं सूक्ष्ममेव ग्राह्यम्।
कथञ्चित् लोकव्यवहारमात्र के लिये ग्रहणास्तोदयादि में आवश्यकतानुसार स्थूल दृक्पक्ष को ग्रहण किया जा सकता है, परन्तु यात्रा-विवाहादि में भी अज्ञातज्ञापक सम्यक् फल की सिद्धि के लिये प्रत्यक्षानुमानागम्य और “अज्ञातज्ञापकं शास्त्रम्” के और अनुसार शास्त्रैकसमधिगम्य मुनिप्रोक्त सिद्धान्तपक्षीय सूक्ष्म गणित को ही ग्रहण करना उत्तम पक्ष है।
नृसिंह दैवज्ञ ने भी- ‘भास्कराचार्याणामयमेवाशयः’ से इसी पक्ष को ग्रहण किया है।
तिथिस्वरूपनिर्णय में तो स्पष्ट घोषणा की गई है-
ततो धर्मशास्त्राद्युपयुक्ततिथिसााधनं नक्षत्रयोगकरणज्ञानं चोक्तम् ।
मत्स्यमहापुराण में भगवान् वेदव्यास का स्पष्ट उद्घोष है-
नैष शक्य: परिज्ञातुं याथातथ्येन केनचित् ।
गतागतं मनुष्येण ज्योतिषां मांसचक्षुषा ॥
ग्रहों की सूक्ष्म गति मनुष्यों के द्वारा अदृश्य है, एतदर्थ प्रत्यक्षातिरिक्त सभी व्रत-पर्व श्रौत-स्मार्तानुष्ठानार्थ आर्षसिद्धान्त की ही उपयोगिता सिद्ध है। सनातनधर्मानुयायियों के सभी सिद्धान्त श्रुति-स्मृति-पुराण-तन्त्रागमादिमूलक ही हैं, इसलिये अनार्ष दृग्गणितमात्रदुराग्रही प्रत्यक्षवादियों के द्वारा धर्म-व्रताद्यनुष्ठानों का सूक्ष्म निर्णय असम्भव है। ऋषिगण तपो-योगजसामर्थ्यातिशय के कारण अतीन्द्रियार्थदर्शी होते थे, यन्त्रादिनिर्माण-प्रयोगकुशल वैज्ञानिक सूक्ष्मज्ञ होते हुए भी ऋतम्भराप्रज्ञायुक्त अदृश्यदर्शी ऋषि नहीं हो सकते। सूर्यसिद्धान्तीय पञ्चाङ्ग
विष्णुधर्मोत्तर, कालार्क, ज्योति:सिद्धान्तसंग्रह, लल्ल, मुञ्जाल, श्रीनिवासीय धर्मशास्त्रादि में उपर्युक्त आर्ष पक्ष ही सम्मानित है।
स्कन्दमहापुराण के कलिमाहात्म्य में तो सिद्धान्तपक्ष के त्याग का भयावह फल और सिद्धान्तपक्ष के ग्रहण का सुखद फल भी बता दिया गया है–
दृक्सिद्धखेटग्रहसाधितासु कुर्वन्ति केचित्तिथिषु प्रमादात् ।
श्राद्धादिकं तत्पितृशापतस्ते पुण्यक्षयं दुर्गतिमाप्नुवन्ति ॥
तथापि सन्तो बहवोऽत्र धार्मिकाः पुरातनाचारमथाजहन्त: ।
सूर्यांशजोक्तार्जितकाल एव कर्माणि कुर्वन्ति सुखं लभन्ते ॥
भगवान् वेदव्यास पुनः दृढ़ता से सूर्यसिद्धान्तारिक्त सिद्धान्त को अग्राह्य बताते हैं–
सौरोपनिषदेवाद्या कल्पे त्वस्मिन् सनातनी ।
यामादित्यः स्वयं प्राह मयाय परिपृच्छते ॥
कालज्ञानं तु तत्सिद्धं विशुद्धं नान्यदुच्यते ।
तद्विरुद्धं तु यत्सर्वमपरिग्राह्यमेव तत् ॥
जब दृग्गणितवादियों के यहाँ भी चित्रा- रेवत्यादि के भेद से अयनांशभेद होता है तब तदनुसार पञ्चाङ्गीय तिथ्यादिकों में भी भेद का होना स्वाभाविक ही है। ऐसी परिस्थिति में निर्दुष्ट शास्त्रीय आर्षपक्ष का आश्रय ग्रहणकर एक स्थिर पञ्चाङ्गनिर्माण की महती उपयोगिता सिद्ध होती है।
सम्प्रति दक्षिणदेश में भी तिथि-नक्षत्र-मुहूर्त्तादि वैदिक विषयों में आर्षग्रन्थसिद्ध ग्रहस्थिति को ही ग्रहण करने की परम्परा है और ग्रहण तथा जातकर्मादि लौकिक विषयों में दृक्सिद्ध ग्रहों को ग्रहण किया जाता है। सूर्यसिद्धान्तीय पञ्चाङ्ग
सम्पूर्ण ज्योतिर्मण्डल गतिशील है, कालान्तर में अथवा देशभेदादि से गत्यादिमूलक गणितीय भेद हो सकते हैं; परन्तु कालान्तर या देशभेदादि के भी गणितीय भेद की उपपत्ति मुनिप्रणीत सूक्ष्म ज्योतिषीय सिद्धान्तों में ही बता दी गई है। इसलिये नवीन-प्राचीन का मानापमान अत्यन्त उपहासास्पद है। सम्प्रदायादि के भेद से भी व्रत-पर्वों का भेद दूषण नहीं, अपितु अमुकामुक सम्प्रदायनिष्ठों के लिये सम्मान्य है।
सभी प्राचीन आप्त आचार्यों और ‘कुम्भतिथ्यादिनिर्णयः’ आदि धर्मशास्त्रपरक ज्योतिषीय निबन्धों में सर्वभूतहृदय धर्मसम्राट् स्वामी श्रीकरपात्रीजी महाभाग आदि ने भी समारोहपूर्वक इसी पक्ष को समुद्घाटित किया है। मौलिक अध्येताओं के लिये भारतीय सूक्ष्म गणितसिद्धान्त सर्वकाल में मान्य रहेंगे।
वर्तमान में अतिशय चिन्ता का विषय यह है कि विविधपक्षीय पञ्चाङ्गनिर्माण के लिये अगणित सॉफ्टवेयर्स उपलब्ध हैं, जिनसे अल्प प्रयास में ही पञ्चाङ्ग तो तैयार हो जाते हैं; परन्तु पञ्चाङ्गों का सम्मान व्रतोपवासादि के मीमांसामूलक धर्मशास्त्रीय सूक्ष्मविचार से ही होता है, जिसकी सम्पूर्ति पारम्परिक शास्त्राध्ययन के अत्यन्ताभाव में प्रायः नहीं हो रही है। अन्यों के लिये भी, विशेषत: ज्योतिषियों के लिये तो सन्ध्या-गायत्र्यादि के माध्यम से ज्योति:शास्त्र के प्रथम प्रवर्त्तक भगवान् श्रीसूर्यनारायण की सम्यक् उपासना अत्यन्त अनिवार्य है। मैं पञ्चाङ्गविभाग के प्रबुद्ध प्रणेतृमण्डल एवं प्रयोक्ताओं से इस कमी को सदा के लिये दूर करने की महती अपेक्षा रखता हूँ और पञ्चाङ्ग किसी सम्प्रदायविशेष में बँधकर अल्पोपयोगी न हो जाय, इसका भी ध्यान रखना आवश्यक है।
श्रीनिम्बार्कपरिषद्, जयपुर, राजस्थान के द्वारा सूर्यसिद्धान्तपक्षीय श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चाङ्गम् का प्रकाशन शास्त्रवादी सनातनियों के लिये अत्यन्त ही हर्ष का विषय है । सर्वेश्वर भगवान् श्रीराधाकृष्ण की अहैतुकी कृपा से पञ्चाङ्गप्रणेता, पञ्चाङ्गप्रयोक्ता एवं एतत्सिद्धान्तानुसार व्रत पर्वादि श्रौत-स्मार्तधर्मों के अनुष्ठाता के दृश्यादृश्य लोकद्वय मङ्गलमय हों। सूर्यसिद्धान्तीय पञ्चाङ्ग
शुभमिति दिक्
पण्डित गङ्गाधर पाठक ‘वेदाद्याचार्य’ (मुख्याचार्य- श्रीरामजन्मभूमिशिलापूजन, अयोध्या)
राजस्थान का एकमात्र सूर्यसिद्धान्तीय श्रीसर्वेश्वर जयादित्य पञ्चाङ्ग प्रकाशित