भारतीय संस्कृति में पति-पत्नी की कई आदर्श जोड़ियां मौजूद है पर उनमें सबसे आदर्श जिस जोड़ी को माना जाता है वो रघुनंदन श्री राम और जनकनंदिनी सीता जी की जोड़ी है। ये सबसे आदर्श जोड़ी इसलिये मानी जाती है क्योंकि पति और पत्नी के प्रेम संबंधों की जितनी श्रेष्ठता इस जोड़ी में मिलती है वो अन्यत्र कहीं मिलनी दुर्लभ है। वहां एक तरफ श्रीराम हैं जिन्होंनें एक पत्नीव्रत के वैदिक आदेश का अनुपालन कर आदर्श स्थापित किया वहीं दूसरी तरफ जानकी हैं जो जनकपुर और अयोध्या के वैभवों में पली होने के बावजूद अपने पति के साथ न सिर्फ वन चली जातीं हैं बल्कि लंकेश के द्वारा हरे जाने के बावजूद अपनी पवित्रता बनाये रखतीं हैं और सारे संसार के समक्ष पतिव्रता स्त्री होने का सर्वोतम उदाहरण प्रस्तुत करतीं हैं। पवित्रता ऐसी जिसकी मिसाल देते हुए मंदोदरी ने रावण से कहा था,

“मिथिलेश कुमारी के लिये आपके मन में जो कुत्सित भावना थी उसे तो आप पूरा नहीं कर सके उल्टे उस पतिव्रता की तपस्या से आप जलकर भस्म हो गये”।

राम और सीता की प्रेम-कहानी के सामने दुनिया की हरेक प्रेम-कहानी छोटी है। अक्सर महिलाओं को ये शिकायत रहती है कि शादी के बाद धीरे-धीरे पति का उसके प्रति प्रेम कम होता जाता है पर रामकथा इसके विपरीत है, वहां राम और सीता का प्रेम कभी कम नहीं होता बल्कि प्रति दिन बढ़ता है। उस प्रेम में सिर्फ काम नहीं है, पत्नी के प्रति आदर भी है, पत्नी को अपना अर्धांश समझने और उसके बिना खुद को अपूर्ण समझने का आदर्श भी है और ऐसा ही सीता की ओर से भी है, किसी कारण से श्रीराम ने भले जनकनंदिनी सीता का परित्याग किया हो पर सीता ने अपने दोनों पुत्रों को सदा श्रीराम का पावन चरित ही गाकर सुनाया। राम को पिता की ओर से वन जाने का आदेश हुआ, राम अकेले ही जाने को तैयार थे पर जानकी इसके लिये तैयार नहीं थी, राम वन में होने वाले अनेक प्रकार के कष्टों का वर्णन करते हुए जानकी को वहां जाने से रोकते हैं पर राम की सारी बातों को सुनने के बाद जानकी यही कहतीं हैं,

“वीर ! मैं जानती हूँ कि वनवास में अवश्य ही बहुत से दुःख प्राप्त होतें हैं, परन्तु वे उन्हीं को जान पडतें हैं जिनकी इन्द्रियां और मन उनके वश में नहीं होते और स्त्री के लिये तो उसका हर रिश्ता-नाता उसके पति से ही है फिर पति के बिना कैसा राजसी सुख और किसी का कैसा साहचर्य? अगर आपने मुझे साथ ले जाने से मना कर दिया तो आप लौटकर मुझे जीवित नहीं पायेंगें।”

राम और सीता के प्रेम का और भी उत्कृष्ट दर्शन तब होता है जब दोनों वन में होतें हैं। कभी कालीन के नीचे पैर न रखने वाली जानकी जब वनमार्ग पर निकलती है तो कुछ ही दूर चलने के बाद उनके ओंठ सूख जातें हैं और पांव थक जाते हैं, वो थककर जमीन पर बैठ जातीं हैं और राम से पूछतीं हैं कि अब और कितनी दूर? उनकी ये दशा देखकर श्रीराम के आँखों में आंसू आ जातें हैं। पत्नी के सामान्य कष्ट को देखकर प्रेमवश पति के आँख से आंसू निकल आने की ऐसी मिसाल अन्यत्र कहीं मिलेगी ? फिर आगे जाकर एक जगह जानकी के पैरों में कांटे चुभ जातें हैं, राम उनको प्यार से बिठाकर उनके पांव से कांटे निकालते हैं और पति से मिला ऐसा प्रेम देखकर जनकनंदिनी सीता भाव-विह्वल हो उठतीं हैं। सीता के लिये प्रभु का प्रेम निषादराज भेंट प्रसंग में गंगा पार करने के दौरान भी दिखता है। तुलसी लिखतें हैं, ‘रामसखा तब नाव मंगाई, प्रिया चढ़ा चढ़े रघुराई‘ यानि नाव में राम पहले पत्नी को चढ़ातें हैं फिर खुद चढ़तें हैं।

चित्रकूट में राम और जानकी का प्रेम और भी उत्कृष्ट रूप में है। रामचरितमानस में तुलसी इसका वर्णन करते हुए कहतें हैं कि राम वन से सुंदर फूल चुनकर उसके आभूषण बनाकर जनकनंदिनी सीता जी को अपने हाथों से आदर सहित पहनाते थे। यहाँ तुलसी ने लिखा है, ‘सीतहि प्रहराय प्रभु सादर’ यानि प्रभु आदर के साथ सीता को ये आभूषण पहनाते थे। इससे यह भी पता चलता था कि राम सीता का आदर भी करते थे। फिर जब रावण माता का हरण कर लेता है तब प्रभु राम उनके विरह में मारे-मारे फिरते हुए जंगल के पशु-पक्षियों से पूछ्तें हैं, हे पक्षियों, ये पशुओं, हे भौरों के झुण्ड तुममें से किसी ने मेरी मृगनयनी सीता को देखा है ?

ऐसा नहीं है कि राम सीता के विरह में इसलिये दु:खी थे क्योंकि वो सुंदर और मृगनयनी थी। प्रभु सीता के गुण और धर्म पालन की भी कद्र करते थे। वो पुकारते थे, “हा गुनि खानि जानकी सीता, रूप, शील, व्रत, नेम पुनीता” यानि ये गुणों की खान जानकी ! हे रूप, शील, व्रत और नियमों में पवित्र सीते तुम कहाँ हो?”

वेद से लेकर वाल्मीकि रामायण तक सबने कहा कि पत्नी पुरुषों का आधा अंग है और बिना विवाह के कोई भी पुरुष पूर्ण नहीं होता। राम ने सीता का परित्याग किया था पर संबंधों की पवित्रता तब भी बनी हुई थी इसलिये जब यज्ञ करना हुआ तो प्रभु ने दूसरा विवाह नहीं किया बल्कि सीता की स्वर्ण प्रतिमा बनवाकर उन्हें अपने बगल में स्थान देकर यज्ञ-कर्म संपादित किये।

श्रीराम और सीताजी के प्रेम पर लांछन लगाने वालों के लिए यही पर्याप्त उत्तर होगा कि एक बार जनकनंदिनी सीताजी को श्रीराम की याद में विह्वल देखकर उनकी सखी वासन्ती ने कहा, “सखी! तुम ऐसे निष्ठुर पति राम के लिए क्यों इतने गहरे और लम्बे श्वास छोड़ रही हो।” तो तुरंत सीताजी बोलीं, “श्रीराम निष्ठुर नहीं हैं| मैं बहिरंग दृष्टि से ही उनसे दूर हूँ, वस्तुतः उनके हृदय की रानी मैं ही हूँ|”

प्रेम की मिसाल शाहजहाँ और मुमताज़ की प्रेम-कहानी या ताजमहल नहीं है, प्रेम की मिसाल रघुनंदन राम और जनकनंदिनी सीता का पवित्र प्रेम है, जिसका गवाह आज लाखों साल बाद भी भारत और लंका के बीच बना रामसेतु है। प्रेम-कथा की वैसी मिसाल हीर-रांझा, रोमियो-जूलियट या लैला मजनूँ में भी नहीं है जो राम और सीता की प्रेम-कथा में है जहाँ मिलन से लेकर विरह है, प्रेम के साथ आदर और परस्पर सम्मान है तथा आपसी विश्वास और अद्भुत त्याग भी है। इस नवरात्रे में इसे पढ़िये। सुनिये, सुनाइये और अपने जीवन में उतारिये।

– अभिजीत सिंह, लेखक भारतीय संस्कृति, हिन्दू, इस्लाम, ईसाईयत के गहन जानकार, ज्योतिर्विद और लेखक हैं. 

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