प्रश्नोपनिषद का प्रारम्भ इस प्रकार होता है कि सुकेशा, शिविकुमार, सत्यकाम, सौर्यायणि, कौसल्य, भार्गव और कबन्धी, यह ब्रह्मनिष्ठ ऋषि परब्रह्म की खोज करते हुए कि, “वह ब्रह्म क्या है?” इत्यादि जिज्ञासा लेकर उसकी खोज में आचार्य पिप्पलाद के पास हाथों में समिधा लेकर इस भावना से जाते हैं कि आचार्य भगवान हमें सब कुछ बतला देंगे। तब ऋषि पिप्पलाद ने अपनी शरण आए जिज्ञासु ऋषियों से कहा कि पहले से ही तपस्वी होने पर भी आप ब्रह्मचर्य, इन्द्रियसंयम, श्रद्धा, आस्तिकता तथा गुरुसेवा करते हुए एक वर्ष तक गुरुकुल में निवास करिए ततपश्चात आप अपनी इच्छानुसार किसी भी विषय में प्रश्न करना, यदि मैं उस विषय को जानता हुआ तो आपकी पूछी सभी बात बतला दूंगा। इसके एक वर्ष बाद जिज्ञासु ऋषि आचार्य पिप्पलाद से प्रश्न करना शुरू करते हैं और प्रश्नोपनिषद का वास्तविक उद्घाटन होता है।

प्रश्नोपनिषद के आरम्भ की यह घटना यद्यपि छोटी है परंतु इसके अंदर भाव बड़ा गहरा है। सबसे पहले तो सभी जिज्ञासु ऋषि बताए गए हैं, प्रश्न उठता है ऋषि कोटि के व्यक्ति को भी जिज्ञासा? ब्रह्मनिष्ठ ऋषियों को ब्रह्म के विषय में जिज्ञासा? इससे यही पता चलता है कि ब्रह्म की अनन्तता किसी को भी सहज पूर्णतया प्राप्य नहीं है।  लोक में भी देख सकते हैं कि मनुष्य जब एक घास के तिनके के बारे में भी जब यह नहीं कह सकता कि उसने इसके बाह्य, आंतरिक, भौतिक, रासायनिक आदि सभी पक्षों के बारे में पूर्ण रूप से जान लिया है तब अनन्त ब्रह्मांडों के रचयिता, पालयिता, संहर्ता को आखिर एक दो पुस्तकों और थोड़े शब्दों में कैसे व्यक्त किया जा सकता है। इसलिए हमारे तत्वदर्शी ऋषि सदैव ब्रह्म का अनुसन्धान करते रहे और जिज्ञासा करते रहे। प्रश्नोपनिषद

पर केवल जिज्ञासा पर्याप्त नहीं है बल्कि दूसरी बात इस कथा से समझ आती है कि सभी जिज्ञासु पूर्ण समर्पण, श्रद्धा और विश्वास के साथ आचार्य पिप्पलाद के पास गए, इस बात से आश्वस्त होकर कि आचार्य भगवान हमारी जिज्ञासाओं का समाधान कर ही देंगे। गुरु के विषय में होना भी ऐसा ही चाहिए, जब तक गुरु के प्रति मन में संशय है तब तक उनका दिया ज्ञान मस्तिष्क में नहीं घुस सकता। आजकल हालाँकि सच्चे गुरु कम मिलते हैं पर ढूंढने वालों को तो अवश्य मिलते ही हैं, नहीं तो पूर्ण श्रद्धा समर्पण के साथ गुरुओं के भी परमगुरु जगद्गुरु भगवान कृष्ण को गुरु बनाना तो बेहद सरल है।

कथा में जो तीसरा बिंदु है वह सर्वाधिक महत्व का है जब पहले से ही तपस्वी ऋषियों को आचार्य पिप्पलाद एक वर्ष और तप की आज्ञा देते हैं। सबसे भगवती श्रुति बताती है कि तप, संयम और गुरुसेवा द्वारा ही विद्याप्राप्ति हो सकती है। अचानक से ही प्रश्न करके वास्तविक तत्व नहीं जाना जा सकता। जैसे कोई शिष्य गुरु से अकस्मात पूछे कि माया क्या है? गुरु कहे, “अनिर्वचनीय”, इससे क्या निकला? गुरु तो बता देंगे परंतु शिष्य वास्तव में कुछ भी नहीं समझ पाएगा, क्योंकि ईशकृपा और तप के द्वारा ही आध्यात्मिक ज्ञान मिल सकता है, इसका कोई शॉर्टकट नहीं है। एक और बात इसमें छुपी है कि गुरु को भी बिना शिष्य की जाँच पड़ताल के कोई उपदेश नहीं करना चाहिए। अनधिकारी को दिया ज्ञान हानि ही नहीं विध्वंस भी कर सकता है। जैसे कोई आतंकी को अज्ञान में बॉम्ब बनाना सिखा दे तब क्या होगा? अधिकार-अनधिकार का भेद प्रकृति में सभी जगह चलता है। इसी प्रकार शास्त्रज्ञान भी अनधिकारियों के लिए नहीं है और गुरु स्वयं ही शिष्य की योग्यता परख लेते हैं।

प्रश्नोपनिषद

अंतिम भाग विनम्रता से सराबोर है जब भगवान पिप्पलाद कहते हैं कि यदि मुझे पता होगा तो सब बता दूंगा। यह दुर्लभ विनीत भाव हृदयस्पर्शी है जबकि आज किसी विषय पर कुछ न जानते हुए भी लोग उस विषय पर न सिर्फ अपना ज्ञान झाड़ते हैं बल्कि कुतर्कों से उसे सच साबित करने को भी उतारू हो जाते हैं। वास्तव में भगवान पिप्पलाद का यह ‘यदि’ कहना किसी विषय से उनकी अनभिज्ञता या अज्ञानता का परिचायक नहीं है बल्कि उनकी अत्यंत नम्रता का परिचायक है। क्योंकि सर्वज्ञता किसी जीव का लक्षण नहीं है, और ऋषियों ने इस बात को अनुभव ही नहीं किया था बल्कि जिया भी था। ऋषि उसे जानने को हमेशा उत्सुक रहे फिर पूर्णता प्राप्त करके भी अंत में नेति नेति कहकर कह दिया कि हम उसे पूरा जान नहीं पाए। बिना अहम पाले ऐसा शोध चलता रहना चाहिए। प्रश्नोपनिषद

प्रश्नोपनिषद की कथा बताती है कि सनातन धर्म ने कैसे मानवीय उत्कृष्टताओं के अनुसन्धान और उनके परिष्कार से आध्यात्म के उच्च शिखरों का रास्ता तय किया था। विभिन्न मत-पंथ-सम्प्रदायों के समुच्चय का नाम सनातन धर्म है जहाँ हर मनुष्य को अपनी इच्छानुसार विकास का अधिकार भी है और स्वतन्त्रता भी। यह केवल सनातन धर्म का ही वैशिष्ट्य है कि जिसमें परमात्मतत्व सीमित नहीं अपरिमित है। पक्षियों के उड़ने के लिए विस्तृत वितान है तो मनुष्य की उड़ान के लिए सनातन धर्म है। पर उस वितान में उड़ना गुरु ही सिखाते हैं। धन्य है यह धरा जिसमें ऐसे ऋषि मुनि पैदा हुए हैं, धन्य है यह देवभाषा जिसमें ऐसे सुधानिधि शास्त्रों की रचना हुई है, धन्य हैं वे गुरु जिन्होंने दैवीय मार्गों को प्रशस्त किया, धन्य हैं हम जो हमें सनातन धर्म में जन्म मिला, ईश्वर हमें सन्मार्ग में प्रेरित करे!

यह भी पढ़ें,

सनातन धर्म को समझने के लिए पढनी होंगी ये पुस्तकें

सनातन धर्म के सम्प्रदाय व उनके प्रमुख ‘मठ’ और ‘आचार्य’

पुराणों की गाथा, भाग-1, क्यों महत्वपूर्ण हैं पुराण?  

पुराणों की गाथा, भाग-2, कौन हैं वेदव्यास?

पुराणों की गाथा, भाग-3, जब सूत जाति के रोमहर्षण और उग्रश्रवा ब्राह्मण बन गए

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here