पद्मावती फ़िल्म का सर्व हिन्दू समाज ने विरोध किया जो कि बहुत ही प्रसन्नता का विषय है। फ़िल्म के प्रखर विरोध के लिए श्री राजपूत करणी सेना व राजपूत संगठनों के साथ बजरंग दल, विश्व हिंदू परिषद, अन्य हिन्दू संगठन अग्रवाल महासभा, ब्राह्मण महासभा, वैश्य महासभा व अन्य 36 कौम एक साथ आई हैं। महारानी पद्मिनी सभी हिन्दूओं की माँ हैं और उनका सम्मान किसी के लिए बंटा हुआ नहीं है।

परन्तु जब भी हिन्दू एकजुट से दिखने लगते हैं कुछ मूर्ख जातिवाद फैलाना चालू कर देते हैं। जैसे कुछ मूर्ख राजपूतों को कायर तक कह देते हैं, कुछ धूर्त ब्राह्मणों को बेरोकटोक गाली बक जाते हैं। ऐसे ही कुछ नमूने बनियों को धंधेबाज और स्वार्थी कहकर उनका अपमान करते हैं। वैश्यों ने अपना कभी भी प्रचार कर महानता की पीपुड़ी बजाकर दूसरों को नीचा नहीं दिखाया इसलिए हमेशा ही उनका कम आकलन किया गया है और परिदृश्य से ही ओझल सा कर दिया जाता है। जबकि वैश्य समाज ने हमेशा हिन्दूओं की हर लड़ाई में ऐसे साथ दिया है जैसे गायक का साथ उसके संगतकार देते हैं। एक कवि की कुछ पंक्तियां हैं —

मुख्य गायक की गरज़ में,
वह अपनी गूँज मिलाता आया है प्राचीन काल से,
गायक जब अंतरे की जटिल तानों के जंगल में, खो चुका होता है,
तब संगतकार ही स्थाई को सँभाले रहता है।

तारसप्तक में जब बैठने लगता है उसका गला,
तभी मुख्य गायक को ढाढस बँधाता,
कहीं से चला आता है संगतकार का स्वर,
कभी-कभी वह यों ही दे देता है उसका साथ,
और उसकी आवाज़ में जो एक हिचक साफ़ सुनाई देती है,
या अपने स्वर को ऊँचा न उठाने की जो कोशिश है,
उसे विफलता नहीं,
उसकी मनुष्यता समझा जाना चाहिए।

ऐसा ही है वैश्य समाज जो कहीं से छिपकर, बिना किसी अहम् के धर्म की लड़ाई में गिलहरी योगदान देता आया है। जब हम कहते हैं कि विदेशी आक्रांताओं ने आक्रमण करके भारत का धन लूटा, व्यापार नष्ट कर दिए, तो वे लुटने वाले कौन थे? वे यही लोग थे। पर वे कभी धर्म से दूर नहीं हुए और अपने धन संसाधन सदैव धर्म के लिए निःस्वार्थ भाव से खोले रखे। युद्धों की सबसे ज्यादा गाज व्यापार पर ही गिरती है और वैश्य ही कर द्वारा राज्य को समृद्ध बनाते हैं।

जौहर केवल जाति विशेष का नहीं..

विल ड्यूरेन्ट ने अपनी किताब द स्टोरी ऑफ सिविलाइज़ेशन में लिखा है कि, “जब अलाउद्दीन ने चित्तौड़ में प्रवेश किया तब परकोटे की चारदीवारी में मनुष्य जीवन का चिन्ह तक नहीं था। सभी पुरुष युद्ध में मारे जा चुके थे और उनकी पत्नियाँ जौहर में।” अमीर खुसरो के अनुसार “सैनिकों के अलावा 30 हज़ार हिन्दूओं का खिलजी ने क़त्ल करवाया था। जिस कारण लगता था कि खिज्रबाद में घास की बजाय पुरुष उगते थे।” इसलिए यह तो स्पष्ट है कि केवल राजपूत ही नहीं ब्राह्मण, वैश्य सभी का बलिदान और क़त्ल हुआ था। क्योंकि कोई भी नगर केवल एक जाति से नहीं बसता है। राजपूत साम्राज्य की छत्रछाया में वृहद हिन्दू समाज भी रहता था। ऐसे में शुरुआत से ही यह लड़ाई केवल एक समुदाय की नहीं अखिल हिन्दू समाज की लड़ाई है।

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भामाशाह का दान

वैश्य समाज धर्म के लिए कभी भी पीछे नहीं रहा है। हल्दीघाटी युद्ध के बाद महाराणा प्रताप जब मेवाड़ के आत्मसम्मान के लिए जंगलों में भटक रहे थे तब भामाशाह ने सम्पूर्ण निजी सम्पत्ति का दान कर दिया था। जिससे 25000 सैनिकों का बारह वर्ष तक निर्वाह हो सकता था। प्राप्त सहयोग से महाराणा प्रताप में नया उत्साह उत्पन्न हुआ और उन्होंने पुन: सैन्य शक्ति संगठित कर मुगल शासकों को पराजित करके राज्य सम्भाला।

धर्मपरायणता के लिए जाति निकाला..

अग्रवाल वैश्यों के धर्माभिमान का ये स्तर था कि एक लाला रतनचंद मुग़ल बादशाह फ़र्रुख़सियर का दीवान बन गए और सैय्यद भाइयों के खास। उस समय लाला रतनचंद की भूमिका किंग मेकर जैसी थी। जज़िया का भी उन्होंने विरोध किया था। परन्तु अग्रवाल समाज को उनका मुस्लिमों की नौकरी करना नागवार गुजरा और उन्हें जाति बहिष्कृत कर दिया गया। रतनचंद से पहले किसी अग्रवाल का मुगलों से सम्बन्ध नहीं रहा था। बाद में रतनचंद ने राजवंशी नाम की अलग उपजाति बना ली। इसी धर्मपरायणता के कारण 1990 से पहले एक भी अग्रवाल का मुस्लिम बनने का मामला नहीं मिलता।

वैश्य: हिन्दू धर्म के निःस्वार्थ सेवक

देश के अधिकांश मंदिर निर्माण, प्रबंधन, धार्मिक आयोजन, सेवा प्रकल्प, यज्ञ याग आदि में तो इस समाज का योगदान बताने की आवश्यकता नहीं है। हिंदी के जनक भारतेंदु हरिश्चंद्र, क्रांतिकारियों के प्रेरणापुंज लाला लाजपत राय, गीताप्रेस के द्वारा सनातन धर्म की अकल्पनीय निःस्वार्थ सेवा करने वाले गीताप्रेस के संस्थापक ब्रह्मज्ञानी हनुमान प्रसाद पोद्दार जी, जयदयाल गोयन्दका जी हों, हिन्दुत्व को कलम से सींचने वाले सीताराम गोयल हों या देश में श्रीरामलला की आंधी चलाने वाले पूज्य अशोक सिंहल जी या हज़ारों युवा जिन्होंने श्रीरामजन्मभूमि आंदोलन में ऐतिहासिक भाग लिया वैश्यों ने कभी भी अपने कार्य को प्रचार और एहसान जताने के साधन नहीं बनाया। न इसके लिए किसी सम्मान की कभी उपेक्षा की। अपने हिस्से की धर्मसेवा की और उसे मन से निकालकर फेंक दिया। पुनः धर्म और सन्तों के सेवक बनकर गिलहरी योगदान देते रहने को ही जीवन का उद्देश्य माना। फिर भी जब कुछ जातिवाद के दम्भ से पीड़ित लोग वैश्यों को स्वार्थी, सांठगांठ करने वाला और निष्क्रिय बताकर अपने दम्भ को पोषित करने का प्रयास करते हैं तो हंसी नहीं तो दया के पात्र लगते हैं।

वैश्य समाज के लक्षण

पद्मावती फ़िल्म के विरोध में भी यह समाज सहज रूप से स्वयं प्रेरित भाव से ही अलख जगाता रहा। और माँ के सम्मान में हमेशा खड़ा रहेगा। राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा उन सबका पूर्ण समर्थन और अभिवादन करती है जो माँ के सम्मान में खड़े हैं। समग्र वैश्य समाज तो धर्म के प्रत्येक कार्य में एकांत में योगदान देकर अपना कर्तव्य निभाता रहेगा। कभी कोने में घायल गौ के घाव भरता दिखेगा तो कभी रामलला के चौखट पर पत्थर लगाते। कभी किसी प्यासे को पानी पिलाते तो किसी पंगत में सन्तों की सेवा करते। कभी युद्ध में रसद पहुंचाते तो कभी युद्धभूमि में मुस्कुराते मुख के साथ बलिदान हुआ मिलेगा….

– राष्ट्रीय अग्रवाल महासभा

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