श्राद्ध पूर्वजों के प्रति सच्ची श्रद्धा का प्रतीक है। पितरों के निमित्त विधिपूर्वक जो कर्म श्रद्धा से किया जाता है उसी को ‘श्राद्ध’ कहते हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार, प्रत्येक शुभ कार्य के प्रारम्भ में माता-पिता, पूर्वजों को नमस्कार या प्रणाम करना हमारा कर्तव्य है। हमारे पूर्वजों की वंश परम्परा के कारण ही हम आज यह जीवन देख रहे हैं। इस जीवन का आनंद प्राप्त कर रहे हैं। इस धर्म में, ऋषियों ने वर्ष में एक पक्ष को पितृपक्ष का नाम दिया। पितृपक्ष में हम अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं।
सनातन धर्म पूर्वजन्म को मानता है लेकिन साथ साथ ये भी मानता है कि एक न एक दिन मोक्ष की प्राप्ति होती है यदि कर्म अच्छे रहे तो। इसीलिए हिन्दू अपने पितरेश्वरों का श्राद्ध, तर्पण, मुक्ति हेतु विशेष क्रिया संपन्न कर उन्हें अर्ध्य समर्पित करते हैं। मृत्यु और नया जन्म लेने के बीच आत्मा को उसके कर्मफल भोगने पड़ते हैं। और श्राद्ध कर्मों से हम पितरों के अच्छे कर्मों के फल प्राप्त करने में सहायता करते हैं। ताकि पितरों को अच्छे कर्मों के फलस्वरूप अच्छा जन्म मानव योनि में मिले ।
हर व्यक्ति के तीन पूर्वज पिता, दादा और परदादा क्रम से वसु, रुद्र और आदित्य के समान माने जाते हैं। श्राद्ध के वक़्त ये ही वसु, रुद्र तथा आदित्य सभी पूर्वजों के प्रतिनिधि माने जाते हैं। ठीक ढंग से रीति-रिवाजों के अनुसार कराये गये श्राद्ध-कर्म से तृप्त होकर वे श्राद्ध करने वाले वंशधर को सपरिवार सुख-समृद्धि और स्वास्थ्य का आर्शीवाद देते हैं। श्राद्ध-कर्म में उच्चारित मन्त्रों और आहुतियों को वे अन्य सभी पितरों तक ले जाते हैं।
श्राद्ध तीन प्रकार के होते हैं-
नित्य – यह श्राद्ध के दिनों में मृतक के निधन की तिथि पर किया जाता है।
नैमित्तिक – किसी विशेष पारिवारिक उत्सव, जैसे – पुत्र जन्म पर मृतक को याद कर किया जाता है।
काम्य – यह श्राद्ध किसी विशेष मनौती के लिए कृत्तिका या रोहिणी नक्षत्र में किया जाता है।
कौन कर सकता है श्राद्ध –
सिर्फ बेटे ही श्राद्ध कर सकते है ऐसा नहीं है। शास्त्रों के अनुसार साधारणत: पुत्र ही अपने पूर्वजों का पितृपक्ष श्राद्ध करते हैं। किन्तु शास्त्रानुसार ऐसा हर व्यक्ति जिसने मृतक की सम्पत्ति विरासत में पायी है और उससे प्रेम और आदर भाव रखता है, उस व्यक्ति का स्नेहवश श्राद्ध कर सकता है। विद्या की विरासत पाने वाला छात्र भी अपने दिवंगत गुरु का श्राद्ध कर सकता है। पुत्र की अनुपस्थिति में पौत्र या प्रपौत्र भी श्राद्ध-कर्म कर सकता है। नि:सन्तान पत्नी को पति द्वारा, पिता द्वारा पुत्र को और बड़े भाई द्वारा छोटे भाई को पिण्ड नहीं दिया जा सकता। किन्तु कम उम्र का ऐसा बच्चा, जिसका उपनयन संस्कार न हुआ हो, पिता को जल देकर नवश्राद्ध कर सकता। शेष कार्य उसकी ओर से कुल पुरोहित करता है।
कितना है पितृपक्ष श्राद्ध में खर्च –
श्राद्ध श्रद्धा का ही एक रूप है इसमें जो भी आप कर सकते हैं कीजिये। विष्णु पुराण के अनुसार गरीब केवल मोटा अन्न, जंगली साग-पात-फल और न्यूनतम दक्षिणा द्वारा श्राद्ध कर सकता है। वह भी ना हो तो सात या आठ तिल अंजलि में जल के साथ लेकर ब्राह्मण को देना चाहिए। या किसी गाय को दिन भर घास खिला देनी चाहिए। अन्यथा हाथ उठाकर दिक्पालों और सूर्य से याचना करनी चाहिए कि, “हे! प्रभु मैंने हाथ वायु में फैला दिये हैं, मेरे पितर मेरी भक्ति से संतुष्ट हों”। फल इसका भी समान प्राप्त होता है।
विशेष –
आजकल लोगों ने श्राद्ध का मजाक बनाना शुरू कर दिया है। मैं मजाक बनाने वालों से सिर्फ इतना पूछना चाहूंगा कि —
क्या आप अपने पितर जनों जिन्होंने हमें इस संसार में जीवन दिया उन्हें रोज संस्मरण करते हैं? उनका रोज ध्यान करते हैं? जवाब मुझे पता है आपका, ‘नहीं’ ही होगा। इसलिए यदि पूरी साल में कुछ दिन आप अपने पूर्वजों को याद कर लेते हैं तो इसमें इतना हो हल्ला कैसा? क्या यह बुरी बात है? श्राद्ध सूक्ष्म शरीरों के लिए वही काम करते हैं, जो कि जन्म के पूर्व और जन्म के समय के संस्कार स्थूल शरीर के लिए करते हैं। इसलिए शास्त्र पूर्वजन्म के आधार पर ही कर्मकाण्ड में श्राद्धादि कर्म का विधान निर्मित करते हैं। मृत्यु भोज और श्राद्ध दोनो में भिन्नताएं है।
– अजेष्ठ त्रिपाठी, लेखक मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया निवासी हैं और हिन्दू धर्म, संस्कृति और इतिहास के गहन जानकार और शोधकर्ता हैं।
श्राद्ध का वैज्ञानिक पक्ष आप यहाँ पढ़ सकते हैं –
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