महादेव के पंचम मुख अघोर द्वारा उद्भूत मुक्ति का मार्ग तंत्र में अघोर के नाम से विख्यात है। (यद्यपि अज्ञानता और सनातन संस्कृति के खंडन के षड्यंत्रों के कारण अब यह कुख्यात अधिक है)। अघोर मार्ग के अनुयायी अघोरी कहलाते हैं। जो घोर(जगत प्रपंच की मधुर मोहिनी माया और भेद बुद्धि रुपी अविद्या) से परे होकर सांसारिक ममत्व माया तक से भी परे हो जाता है या इस दिशा में प्रयासरत हो जाता है वही अघोरी है। नाथ सम्प्रदाय के अंतर्गत ही अघोर पंथ और विद्या आती है। अघोरी के जीवन में समष्टि रूप में देखा जाए तो केवल अपने गुरु और शिव शक्ति से ही अनुराग होता है। व्यष्टि रूप में संसार के कण कण में भी वह अपने गुरुदेव और शिव शक्ति का साक्षात् प्रतिबिम्ब देखा करते हैं। इस भाव की अनुगम्यता के सतत कर्म ध्यान से अघोरी की भेद्बुद्धि का नाश संभव हो पाता है।
“केवलं शिवम् सर्वत्रम । सर्वस्व शिव स्वरूपं ।।”
इस भाव से सर्वस्व जड़ चेतन में केवल शिव भाव का ज्ञान प्रकट हो कर साधक स्वयं शिवरूप ही हो जाता है जो की शिवोsहं भाव कहलाता है।आदिशक्ति जगत्जननी ही उसकी माता और शिव ही उसके पिता हो जाते हैं। उनका चिर सानिद्ध्य ही प्राप्त करने हेतु शरीर या देह को वह एक माध्यम बना लेता है। गत अगणित जन्मो के कर्मसंचय और कार्मिक ऋणबन्धनों के क्षय हेतु अघोरी शिवमय होकर साधनाओं में ही अपना जीवन व्यतीत करते हैं। संसार आदि से उनका मन उठ जाता है क्योंकि उन्हें आत्मा तत्व का बोध हो जाता है। अतः चैतन्य विहीन समाज उनके लिए शव तुल्य ही होता है। देहबद्ध आत्मा जो की माया के पाश में जकड़ी हुयी है उस से माया द्वारा छला हुआ शव उन्हें अपने ज्ञान के अधिक अनुरूप प्रतीत होता है। क्योकि यही शाश्वत सत्य को परिभाषित करता है वह भी सप्रमाण।
शमशान भूमि जगत्जननी की गोद के समान हो जाती है। क्योंकि उसने जान लिया है की यहीं से मां के चिर सानिद्ध्य का मार्ग है। यही मात्र वह पुन्य भूमि है जहाँ शिवत्व है। अभेद का भाव सदैव जागृत है। राजा रंक ज्ञानी मूर्ख पुण्यात्मा पापी सती वैश्या रूप कुरूप आदि कोई भेद नहीं। सभी का एक ही चिता स्वरुप ही शिव का धूना और भस्म ही सबका सार। इसी परम तत्व स्वरूप भस्म को माया के नष्ट होने के प्रतीक रूप में वह धारण करता है। यही शिव के भस्म अंगराग का गूढ़ अर्थ भी है। शिवत्व की प्राप्ति हेतु माया से निर्लेप हो जाना। पूर्ण शिशुत्व का उदय होकर मां को पुकारना ही अघोर है।
अघोरी : एक और बात..
भेद बुद्धि नहीं हो और माया के समस्त स्वरुप का बोध हो जाये, संसार की क्षण भंगुरता का ज्ञान हो जाये और अपने कर्म ऋण को उऋण करना लक्ष्य हो तब उसे गंध दुर्गन्ध रूप स्वरूप की क्या महत्ता? शरीर पर उत्पन्न जीवाणु आदि भी जीवरूप उसके ही कर्म ऋण हैं जो उसके देहिक गत जन्मो में उस से कुछ मांगते रहे हैं। उसकी देह जब इस रूप में उन्हें आश्रय देकर स्वयं को उनके भोजन स्वरुप ही दे देगी तो कितना कर्मभार कटेगा यह एक कर्म सिद्धांत से सोचने की बात है।
अघोरी द्वारा मल मांस और सड़े गले भोजन को खाने के पीछे प्रायोगिक रूप से अपने अभेद्बुद्धि को सदैव जागृत रखने का प्रयास ही है। जब कण कण शिवमय मान ही लिया तो प्रायोगिक रूप से इसे सिद्ध कर के ही आत्मदृढ़ता अवचेतन तक व्याप्त हो सकेगी। जो जीवन में न उतरे ऐसा ज्ञान तो केवल भार ढोने के समान है।
मनुष्य देह दुर्लभ से भी दुर्लभतम मानी गयी है मोक्ष प्राप्ति के क्रम में। सकल ब्रम्हांड की समस्त जीवात्माएं देव आदि भी केवल इसी मनष्य देह के आश्रय से योनिमुक्त होकर मोक्ष के भागी होने की अनिवार्यता के कारन मानव देह से अत्यधिक आकर्षित होते हैं। इसे परम आकर्षण कहा गया है। क्योकि शिव शक्ति का अंश होकर भी जीव इस देह के आकर्षण में माया में डूब जाता है। इस परम आकर्षण से भी विरत होने की क्रिया शव साधना है। जिस से अघोरी समस्त उच्चतर योनियों के क्रम सिद्धांत को भी विजय कर सद्य महाकाल और काली में अपनी सन्निधि को सिद्ध करता है। यह बहुत विस्तृत विषय है और पूर्ण गोपनीय भी। अतः शव साधना आदि पर इतनी ही चर्चा उचित होगी।
– अजेष्ठ त्रिपाठी, लेखक मेलबर्न, ऑस्ट्रेलिया निवासी हैं और हिन्दू धर्म, संस्कृति, इतिहास के गहन जानकार और शोधकर्ता हैं
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