4.7 C
Munich
Friday, December 12, 2025

कोर्ट के भी पहले से हिन्दू क्यों मानते हैं गंगा – यमुना को जीवित

Must read

कुछ महीने पहले नैनीताल हाईकोर्ट ने गंगा नदी को देश की पहली जीवित इकाई के रूप में मान्यता दी थीऔर गंगा -यमुना को जीवित मनुष्य के समान अधिकार देने का फैसला किया था। इस फैसले के बाद भारत की दोनों महत्वपूर्ण नदियों गंगा और यमुना को संविधान की ओर से नागरिकों को मुहैया कराए गए सभी अधिकार दिए गए थे। गौरतलब है कि न्यूजीलैंड ने भी अपनी वांगानुई नदी को एक जीवित संस्था के रूप में मान्यता दी हुई है। यह बहुत ही सराहनीय कदम था कि दोनों पवित्र नदियों को कोर्ट ने जीवित मानकर मनुष्यों के सभी संवैधानिक अधिकार दिए पर यदि हम न्यूजीलैंड से पहले ऐसा करते तो बात ही अलग होती। क्योंकि भारतीय संस्कृति तो गंगा यमुना को माता कहकर मनुष्य और उससे भी ऊपर देवता की कोटि में रखती है, खैर अदालत ने यह फैसला देकर वैदिक संस्कृति का मान बढ़ाया था। परन्तु खेद है कि हिंदुत्व और संस्कृति की रक्षा करने का दंभ भरने वाली उत्तराखंड की भाजपा सरकार ने ही इस फैसले के विरुद्ध कोर्ट में याचिका दायर की क्योंकि हिंदुत्व एक चुनाव जीतने का साधन है साध्य नहीं है। खैर हम बात करते हैं कि कैसे वैदिक दृष्टि में गंगा और यमुना जीवित हैं और यहाँ तक कि उन्हें देवी माना गया है…

आजकल लोग हम पर जड़ वस्तुओं की पूजा और उन्हें चेतन मानने का आरोप लगाते हैं, इसके निराकरण के लिए वैदिक मान्यता की ओर हम चलते हैं ताकि हमारी इन समृद्ध मान्यताओं का स्त्रोत जान सकें। वैदिक मान्यता में पहला ‘मन’, दूसरा ‘प्राण’, और तीसरे ‘पंचमहाभूत’ रूपी सात तत्वों से सृष्टि की हर जड़ और चेतन वस्तु का निर्माण माना गया है। इन 7 तत्व रूपी धागों से बुनकर (परमात्मा) इस सृष्टि रूपी वस्त्र को बुन रहा है। वेद ने उस महान कवि की सृष्टिरूप इस कविता को सप्ततंतुमय यज्ञ कहा है। पंचभूत को वैदिक परिभाषा में ‘वाक्’ कहा जाता है क्योंकि सूक्ष्मतम भूत ‘आकाश’ है, उसका गुण ‘शब्द’ या ‘वाक्’ है। यह सूक्ष्म भूत ‘आकाश’ ही सब अन्य भूतों में अनुस्यूत होता है इसलिए वाक् को ही पंचमहाभूत का सरल प्रतीक मान लिया गया।

 

शतपथ ब्राह्मण कहता है आत्मा के तीन घटक हैं, “अयमात्मा वांमयो मनोमयः प्राणमयः।” अर्थात आत्मा मन, प्राण और वाक् से बनी है। सात तंतु रूपी इन मन, प्राण और वाक् को ही ‘त्रिक्’ कहते हैं। मन सत्व, प्राण रज और वाक् तम रूप है। सृष्टिरचना की वैदिक कल्पना इसी त्रिक पर आश्रित है। ‘मन’, ‘प्राण’ और ‘वाक्’ इस ‘त्रिक’ के सम्मिलित सम्बन्ध से ही एक शक्ति या अग्नि उत्पन्न होती है, उसे वैश्वानर अग्नि कहा जाता है। ‘त्रिक’ के मिलन से उत्पन्न वैश्वानरः अग्नि से ही जीवन अभिव्यक्त हो पाता है। यह जब तक है तभी तक जीवन है।

इस त्रिक में से प्राण को हम एनर्जी (Energy) कह सकते हैं, पर Energy की अवधारणा जड़ भूतों (matter) से जुड़ी है जबकि वैदिक प्राण की अवधारणा जीवित शरीर से जुड़ी है। वैदिक दृष्टि के अनुसार चेतना ही भूत के रूप में परिणत होती है अर्थात मौलिक तत्व चेतना है और भूत उसका विकार है। इसलिए वैदिक दृष्टि में परमार्थतः सब कुछ चेतन ही है, जड़ कुछ है ही नहीं। चेतना जहाँ ज्यादा आवृत्त हो गई, कि हमारी दृष्टि में नहीं आती वही जड़ है। समस्त सृष्टि मन, प्राण और वाक् (पंचमहाभूत) के त्रिक से ही बनी है, यही मात्राभेद से सभी पदार्थों के घटक हैं। पर जैसे जैसे हमें छिपी हुई चेतना को पहचानने के साधन उपलब्ध हो जाते हैं, वैसे वैसे हम जिसे कल तक जड़ समझते थे उसे चेतन के रूप में जानने लगते हैं। जैसे सर जगदीशचन्द्र बसु से पहले वनस्पतियों को आधुनिक विज्ञान में जड़ समझा जाता था पर जैसे ही बसु जी को समुचित उपकरण उपलब्ध हो गए, उन्होंने सिद्ध कर दिया कि वनस्पति में प्राण हैं। कम लोग जानते हैं कि जगदीश बोस वैदिक विद्याओं का भी ज्ञान रखते थे। महर्षि मनु की स्पष्ट घोषणा है कि वनस्पतियों में भी चेतना है और वे सुख दुख अनुभव करते हैं– ‘अन्तःसंज्ञा भवन्त्येते सुख दुखःसमन्विता।’

इसी तरह विज्ञान अब तक नदियों, पर्वतों आदि को जड़ माने हुए है पर वेद नदियों से कहता है कि, “इमं मे गंगे यमुने सरस्वति” अर्थात ‘हे गंगा, यमुना और सरस्वती नदियों! मेरी प्रार्थना सुनो’ (ऋग्वेद 10.75.5)। यह इसीलिए क्योंकि सभी पदार्थों में आत्मा है और आत्मा है तो प्राण भी है, मन भी है और वाक् भी है, मन है तो सोचने की क्षमता भी है, इसलिए उन्हें सम्बोधित करना कि वे प्रार्थना सुनें बिल्कुल ठीक है। इसके अतिरिक्त जीवन की अभिव्यक्ति वैश्वानर अग्नि से ही होती है, वेद स्पष्ट रूप से जल में वैश्वानर अग्नि की बात कहता है, “वैश्वानरो यास्वगनिः प्रविष्टः” (ऋग्- 7.49.5) अर्थात जल में वैश्वानर अग्नि विद्यमान है।

ganga

वेद में जड़ पदार्थों से चेतन व्यवहार के अनेक प्रमाण मिलते हैं। पर जड़ और चेतन के बीच मौलिक एकता को हृदयंगम कर लेने के बाद कोई कठिनाई नहीं रहती। प्रकृति और मनुष्य के बीच सनातन धर्मियों ने कभी भेद नहीं माना, क्योंकि दोनों ही सजीव हैं, अतः प्रकृति और जीवों को अलग अलग करके नहीं देखा जा सकता। इसलिए सनातन संस्कृति सदैव गौ, भूमि, नदी, तुलसी को माता मानती आई है, हम चन्द्रमा को मामा कहते आए हैं, पहाड़ों को हमने पूजा है, प्रकृति के हर अंग को हमने वस्तु नहीं माना पर अपना आत्मीय सम्बन्धी माना है। इससे यह सिद्ध हो गया कि हम जड़ प्रकृति को नहीं पूजते। हमारी मूर्तिपूजा की परम्परा भी चेतन तत्व की ही उपासना है। जैसे जैसे सनातन संस्कृति और वैदिक मणि मंजूषा की आभा हमारे सामने प्रकट होती है, हमारी बुद्धि चमत्कृत, और जीवन धन्य धन्य हो जाता है।

{ उद्भट वैदिक विद्वानों के ग्रन्थों से ही साररूप में यह लेख लिखा है। वैदिक विज्ञान को समझने की न्यूनतम चेष्टाएँ हो रही हैं, ऐसी स्थिति में जितने लोग ऋषिग्रन्थों के इन गूढ़ तत्वों को जान पाएंगे, यही उनके प्रति कृतज्ञता होगी। }

यह भी पढिए,

आधुनिक विज्ञान से भी सिद्ध है पितर श्राद्ध की वैज्ञानिकता
आधुनिक विज्ञान की नजर में मटकों से सौ कौरवों का जन्म
- Advertisement -spot_img

More articles

1 COMMENT

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

- Advertisement -spot_img

Latest article