संघ के एक कार्यकर्ता की सपरिवार हत्या कर दी गई- मुर्शिदाबाद में। कुल 4 हत्याएं, अत्यंत वीभत्स और दर्दनाक।
संघ प्रतिशोध क्यों नहीं लेता?
यह कोई पहली घटना नहीं है। अनेक निर्दोष स्वयंसेवकों की हत्याएं हुईं हैं। जो दल सत्ता में है उसके संस्थापकों की भी हत्याएं हुईं थीं। दीनदयाल उपाध्याय संघ के प्रचारक थे। प्रचारक ही संघ की पूंजी होते हैं। मुगलसराय स्टेशन पर उनकी हत्या हो गई। 2001के आस पास, आडवाणी जी के गृहमंत्री रहते उल्फा ने चार प्रचारकों की हत्या कर दी। उन्हें लगभग 4 वर्ष तक तड़पाया गया, 3 करोड़ रुपए फिरौती की माँग की गई लेकिन संघ ने पैसे नहीं दिए। शायद थे भी नहीं।
जिस उम्र में जगती के लोग तिकड़म से मुफ्तखोरी बरकरार रखने के आंदोलन चलाते हैं उस उम्र में “संघ कार्यकर्ता” पानी जैसी दाल में भीगी दो रोटी निगलकर समाज प्रबोधन के लिए निकल पड़ते हैं। वे मनुष्य में सुप्त राम जगाने निकल पड़ते हैं। वे खाक छानते हुए खाक हो जाते हैं। अपने सीमित साधन और परिस्थिति की भयावहता उन्हें विचलित नहीं करती।

साध्वी प्रज्ञा की बात का भावार्थ जो भी हो, लेकिन यह तो हो रहा है कि संघ के भोले भाले नौजवान, एक एक कर मृत्यु मुख में जा रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे त्रिशिरारि की मारण तंत्र साधना में एक एक कर बलि ली जा रही है!!
विश्वामित्र और अगस्त्य जैसे ऋषियों के रहते हुए भी तपोवन में हड्डियों के ढेर लग जाते थे। भला उन वीतरागी तपस्वियों से घोरतम बलशाली राक्षसों को क्या खतरा था? फिर भी वे मारते तो थे ही। दबदबा स्थापित करने को मार रहे थे। ये ऋषि भी पक्के सनकी थे। मार खा रहे हैं, सहन कर रहे हैं, पर जगह नहीं छोड़ रहे!! तब तक सहन करते रहे जब तक राम स्वयं आकर निशिचर हीन करहुँ महि की प्रतिज्ञा नहीं कर लेते।
संसार में साधु-जीवन और सज्जन-पथ होता ही सहन करने के लिए है। सज्जन मौन रहते हैं। तप करते हैं, सहन करते हैं। कभी कोई राम आ जाता है तो उस रक्त का हिसाब किताब बराबर करने चल पड़ता है। सबमें राम होता होगा, मगर हरेक का खून नहीं खौलता। किसी किसी का खून खौलता है। किसी एक का रक्त उबलता है। वह चल पड़ता है। सर पर कफ़न बांध कर, उन उन्मत मतवाले पशुओं को धूल चटा देता है। जगती आश्चर्य करती है। यदि सक्रिय है तो साथ भी देती है।
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अन्यथा, सेफजोन से, कनखियों से झाँकती है, कभी कभार आंखें मूंदकर सोने का नाटक भी करती है। संकट टल जाने की प्रतीक्षा करती है। जब यह निश्चय हो गया कि राम ही जीतेंगे, तो ताली भी बजा देती है। जय-जयकार वगैरह करके, राम को भगवान का दर्जा दे, मंदिर बना, प्रसाद चढ़ा ॐ का जाप करती है।
सबसे प्रमुख बात है, राम द्वारा प्रतिज्ञा करना और जगती का सक्रिय होना। निष्क्रिय जगती नाटक करती है, ताने मारती है, सुझाव सलाह देती है, बात को टालने की कोशिश करती है। तो, प्रश्न है कि राम आखिर है कौन?
कौन है राम?
संघ किसी पारलौकिक सत्ता को ईश्वर नहीं मानता। उसके लिए भगवान का स्वरूप “सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्” है। वह विराट हिन्दू समाज को ही ईश्वर मानता है, जिसकी करोड़ों भुजाएं, करोडों नैत्र और करोड़ों पैर हैं। यदि वह सक्रिय और जागृत है तो विराट है, अन्यथा जगती ही है। इस विराट समाज के पुरुषार्थ जागरण तक संघ को सहन करना है। तप करते जाना है। मारीच,सुबाहु, ताड़का, खर-दूषण और शूर्पणखा के नखरे सहन करते जाने हैं।
संघ की सार्थकता इसमें नहीं है कि उसके स्वयंसेवक लाठी डंडा लेकर चल दें और मार धाड़ करके स्नान करने चले जाएं। संघ की सार्थकता तो तब होगी जब समाज करने लगेगा। वह आगे बढ़कर कहेगा “अब आप निश्चिंत रहो, हम सब सम्भाल लेंगे।”
आखिर, ये सब आहुतियां हैं किसके लिए?
क्या वह विराट चेतना उद्वेलित हो रही है?
हिन्दू समाज ने अंगड़ाई ली है, जागा नहीं है।
जागृत होता तो यूँ नहीं मरने देता।
मारने वाले और मरने वाले, दोनों ही तो इसी समाज के हैं, इसी में छिपकर रहते हैं। इसी के संरक्षण में पलते हैं। ये गाली देने वाले, ये जाति की पिपहरी बजाने वाले, ये उजले वस्त्रों में छिपकर कालाधंधा करने वाले, ये संघ के नाम पर जीत कर उसी को ठिकाने लगाने के मंसूबे पालने वाले, ये संघ के बनाए निर्भय वातावरण का लाभ उठाकर उसी के विरुद्ध अभिव्यक्ति देने वाले. आते कहाँ से है? अधिक क्या कहूँ?
संघ जिनके लिए तड़प रहा है, यदि वे ही लोग यह चाहते हैं कि लोग मरते रहें तो मरते रहेंगे। यदि आराध्य ही कुपित है, शंकित है, अविश्वासी है तो आराधक का दूसरा कौन है? विश्वामित्र की क्या भूमिका और हैसियत है? उसे तो अस्थियों के ढेर के समीप कुटिया बनाकर दुर्गंध में भी यज्ञ तो करना ही है। याद रखिए, राक्षसों को यह अच्छे से पता है कि राम आया तो यहीँ आएगा, राम को लाया तो यही लाएगा, अतः वे जनता को नहीं ऋषि को प्रताड़ित करते हैं।
– केसरी सिंह सूर्यवंशी, संस्कृत भारती
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यह पुराना आलेख मैं स्वयं भूल गया था। इसे आज पुनः पढ़कर सुखद आश्चर्य हुआ। आपकी वेबसाइट ने इसे संरक्षित रखा है इसके लिए धन्यवाद। यह आज भी प्रासंगिक है। विचलित मन को सम्बल देता है।
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