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Saturday, December 13, 2025

व्यायाम नहीं योग और प्राणायाम हैं उत्कर्ष का रास्ता

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Shri Vinay Jha
Shri Vinay Jhahttp://vedicastrology.wikidot.com/
आचार्य श्री विनय झा एक योगी, वेद-वेदांगादि शास्त्रों के ज्ञाता, सूर्यसिद्धान्तीय वैदिक ज्योतिष के विद्वान, सॉफ्टवेयर डेवलपर, भाषाविद्, मौसम वैज्ञानिक, प्रतिष्ठित पंचांगकार एवं इतिहास, संस्कृति, धर्म, अध्यात्म से लेकर अर्थशास्त्र, जीवविज्ञान, राजनीति आदि अनेक विषयों के गहन जानकार एवं प्रबुद्ध विचारक हैं

क्या प्राणायाम और आसन के अलावा strength exercises जैसे push ups, squats इत्यादि करना चाहिये आज कल के युवाओं को शारीरिक शक्ति को maintain करने के लिए ?”

उत्तर —

strength exercises जैसे push ups और दण्ड−बैठक या भार उठाने वाले व्यायाम से दवाब बढ़ता है जिससे मांसपेशियों का बल तो बढ़ता है किन्तु लचीलापन घटता है,अतः ऐसे व्यायाम यदि करते हैं तो योगासन बढ़ा देना चाहिये क्योंकि योगासन से खिंचाव होता है जो दवाब की भरपाई करते हैं। दवाब वाले व्यायाम से जिन अङ्गों पर दवाब पड़ता है उसी अङ्ग पर खिंचाव वाले योगासन बढ़ायें। आहार और शयन आदि को भी नियमित करना अनिवार्य है।

दवाब बढ़ने से न केवल मांसपेशियों में लोच घटती है बल्कि फुर्ती भी घटती है क्योंकि फुर्ती का सम्बन्ध लोच से है। लोच और फुर्ती न हो तो शक्ति व्यर्थ है। शक्ति (POWER) का यह अर्थ नहीं है कि आप कितना बल (FORCE) लगा सकते हैं,बल्कि यह अर्थ है कि प्रति सेकण्ड आप कितना बल लगा सकते हैं। इसका अर्थ यह है कि शून्य तनाव से अधिकतम तनाव तक पँहुचने में कितना समय माँसपेशी लेती है। इसका सीधा अर्थ यह है कि माँसपेशी का लचीलापन कितना है,इलैस्टिसिटी!अतः प्रति सेकण्ड दवाब और उतनी ही खिंचाव की क्षमता को शक्ति कहते हैं।

दण्ड−बैठक या भार उठाने वाले व्यायाम से केवल दवाब बढ़ता है जो दीर्घकालीन स्वास्थ्य हेतु घातक है,न केवल माँसपेशी का लचीलापन नष्ट होता है बल्कि स्नायुओं का लोच भी नष्ट होता है जिस कारण स्नायुओं में ग्रन्थियाँ बनती हैं जो स्नायुओं की संचार क्षमता को नष्ट करती हैं। शक्ति के दो कारक हैं — माँसपेशी,और स्नायुओं में संचार। स्नायुओं में संचार का सम्बन्ध मस्तिष्क से है। अतः केवल दवाब वाले व्यायाम करने वाले पहलवानों की बुद्धि भी नष्ट होती है और आयु भी।

खिंचाव वाले व्यायाम भी करते रहें। जैसे कि पाँव के व्यायाम के लिये सबसे अच्छा है पश्चिमोत्तासन और पद्मासन। रीढ़ आदि के लिये चक्रासन — जो कठिन है,अतः अर्ध−चक्रासन कर सकते हैं। पद्मासन के बदले बद्ध−पद्मासन करेंगे तो हाथ में भी खिंचाव हो जायगा। तारासन से भी लाभ है। और भी कई आसन है।

योगासन हेतु सबसे अच्छी पुस्तक है दामोदर सातवलेकर जी की ‘योग के आसन’ जो हिन्द पॉकेट बुक्स ने प्रकाशित की थी,मैं दस वर्ष की आयु से ही उसके अनुसार नियमित आसन करता था। अब पता नहीं वह पुस्तक मिलती भी है या नहीं।

प्राणायाम करने से संस्कार सुधरते हैं,सारे पाप भस्म होते हैं,ग्रहशान्ति होती है,दिव्यचक्षु खुलते हैं,और शारीरिक लाभ भी मिलता है।

बाबा रामदेव से बचें। प्राचीन ऋषियों से योग सीखें। योग पर सर्वोत्तम ग्रन्थ है महर्षि पतञ्जलि की “योगसूत्र”,जिसपर सबसे अच्छा भाष्य है महर्षि वेदव्यास का,जो केवल संस्कृत में ही उपलब्ध है। योगसूत्र तथा उसपर व्यासभाष्य सहित भर्तृहरि और विज्ञानभिक्षु के भाष्यों का सरल तथा संक्षिप्त हिन्दी अनुवाद है स्वामी ओमानन्द तीर्थ रचित गीताप्रेस की “पातञ्जल−योग−प्रदीप” जो सम्पूर्ण योग के लिये सर्वोत्तम पुस्तक है।

भर्तृहरि और विज्ञानभिक्षु के भाष्यों को अनदेखा करें,स्वामी ओमानन्द तीर्थ के अपने विचारों को भी अनदेखा करें। वे कलियुग के लेखक हैं। केवल महर्षि पतञ्जलि के योगसूत्रों और उनपर महर्षि वेदव्यास के भाष्य को समझने का प्रयास करें,इहलोक से परलोक तक सुधर जायगा। इन दोनों महर्षियों को समझने के बाद और प्रायोगिक योग का पर्याप्त अभ्यास करने के उपरान्त ही भर्तृहरि और विज्ञानभिक्षु के भाष्यों एवं स्वामी ओमानन्द तीर्थ के अपने विचारों या विनय झा के अपने विचारों में से कौन से विचार सही हैं और कौन गलत यह देखने की दृष्टि मिल जायगी।

मार्क्स ने सही कहा था कि केवल दुनिया की व्याख्या करने से काम नहीं चलेगा,दुनिया को बदलने की आवश्यकता है। किन्तु मार्क्स ने स्वयं को सुधारने का कभी प्रयास नहीं किया,मार्क्स जैसे गरीब के पीछे जिसने अपने कुलीन परिवार को ठुकराया उस भोली−भाली पत्नी को मार्क्स ने धोखा दिया,नौकरानी से अवैध सम्बन्ध बनाया और उससे उत्पन्न सन्तान को अपनाने से इनकार किया,क्योंकि मार्क्स का मानना था कि ऊपर कोई गॉड तो है नहीं जो मार्क्स को उसके पापों का दण्ड देगा। अतः मार्क्स और उसके चेले केवल दूसरों को सुधारने में लग गये,जिसका परिणाम हुआ ढाक के तीन पात!इन्कलाब जहाँ था आज उससे भी पीछे है!आज संसार के किसी भी देश में गरीबों की सुध लेने वाली कोई भी सच्ची पार्टी नहीं!

अतः दुनिया को बदलने का प्रयास न करें। हर व्यक्ति स्वयं को सुधार ले तो संसार सुधर जायगा। यही आत्मज्ञान का पथ है जिसे “सनातन धर्म” कहते हैं।

आत्मज्ञान होने पर पता चलता है कि व्यक्ति का स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता,वह तो विराट वृक्ष का एक पत्ता है!तब उस विराट अश्वत्थ वृक्ष को ही आत्म समझने की दृष्टि विकसित होती है। प्राण का आयाम बढ़ता है। आत्म की परिधि बढ़ती चली जाती है। इतनी बढ़ती है कि पूरी वसुधा ही कुटुम्ब बन जाती है। उस विराट पुरुष के शरीर में यदि कैन्सर का कोई शान्तिदूत है तो उसके उपचार का उपाय भी दिखने लगता है।

समष्टि को व्यष्टि समझने की जब दृष्टि परिपक्व हो जाती है और उस दृष्टि से कर्तव्य करते रहने पर संस्कारों का समुच्चय भस्म होता है , तब जाकर विराट अश्वत्थ वृक्ष से टूटकर पत्ता सूखकर झड़ जाता है और उसमें जो आत्मतत्व है वह अपने वास्तविक स्परूप में सदा के लिये स्थित हो जाती है। वही मोक्ष है।

समष्टि के सम अर्थ हो उसे समर्थ कहते हैं। दण्ड−बैठक करने से कोई समर्थ नहीं बनता। योगासन करने से कोई समर्थ नहीं बनता। समर्थ बनने का उपाय है समाधि। किन्तु उससे पहले सात सीढ़ियाँ पार करनी पड़ती है। तीसरी सीढ़ी का नाम है योगासन। दण्ड−बैठक तो कोई सीढ़ी ही नहीं है,उनको विशेष उद्देश्य हेतु विशेष साधन से अधिक न समझें।

दूसरों को पीटने के लिये उठक−बैठक करने पर जन्म−जन्मान्तर तक उठक−बैठक करते रह जायेंगे। अपने को सुधारने के लिये उठक−बैठक करने में शर्म आये तो एकान्त में कुछ काल के लिये अपने कान पकड़ कर स्वयं खींच लें,लेफ्ट−वेगस और राइट−वेगस नाड़ियाँ तन जायेंगी जिससे उनकी सूक्ष्म नाड़ियाँ सीधी और स्वच्छ हो जायेंगी जिनको तन्त्र में क्रमशः इडा (चन्द्रनाडी) और पिङ्गला (सूर्यनाडी) कहते हैं,और वेद में गंगा तथा यमुना। उनकी शुद्धि प्राणायाम से होती है जिससे बीच वाली सुषुम्ना के द्वार खुलते हैं जिसे वेद में सरस्वती कहते हैं,वही सरस्वती सहस्रार के सरस्वान् से सङ्गम कराती है। वेद में इन तीनों की अधिष्ठात्रियों को ‘तिस्रो देव्या‘ कहा गया — गङ्गा यमुना सरस्वती अर्थात् “भारती ईळा सरस्वती” ( भारती =यमुना ;ईळा =गङ्गा )। सातों चक्र शुद्ध न हो तो सरस्वान् में मिलने से पहले ही सरस्वती विनशन में सूख जाती!

शारीरिक शक्ति एक साधनमात्र है योगमार्ग में। शारीरिक शक्ति को लक्ष्य मानेंगे तो विकृत शारीरिक शक्ति प्राप्त होगी जो मन को भी विकृत कर देगी। लोग गलत कहते हैं कि अद्वैतवाद पलायन का दर्शन है। अद्वैतवाद समूची सृष्टि को आत्म समझने का दर्शन है। सबकुछ ‘मैं’ ही हूँ तो पलायन किससे?

पलायन वासनाओं से,काम−क्रोध आदि से। अधर्म से युद्ध भी करना हो तो क्रोध को किनारे रख गीता की निष्काम कर्म वाली भावना से। किन्तु निष्काम कर्म आसान नहीं,अर्जुन वाला संस्कार चाहिये जिसका शतांश भी कलियुगी मानव बड़े कठिन तप द्वारा ही अर्जित कर सकता है।

– आचार्य श्री विनय झा

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